Thursday, November 25, 2010

एसपी होते तो पत्रकारों के टेप चलते या धूल खाते?

मुझे एसपी से मिलने या काम करने का अवसर कभी नहीं मिला, क्योंकि जब मैं धरती पर आया तबतक एसपी जा चुके थे। मैंने बस उन्हें तस्वीरों में देखा है और उनसे मुतल्लिक कई बातें सुनी हैं। जहां तक मुझे लगता है, उनके जाने के बाद न तो उनकी जगह कोई नहीं ले पाया और शायद कोई ले भी नहीं पाएगा।  एसपी के कुछ कट्टर विरोधी लोग भी मीडिया में हैं। उन्हीं में से किसी के मुंह से कुछ बातें सुनने के बाद लिखने को मजबूर हुआ। दरअसल, 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारों की भूमिका पर उठे सवालों पर बिल्कुल ख़ामोशी है। पत्रकारों का एक बड़ा कुनबा इस संगीन मुद्दे को उठाना तो दूर, इस पर चर्चा करने से भी कन्नी काट रहे हैं और यही चुप्पी एस.पी. के कथित शिष्यों या सहयोगियों पर कई तरह के सवाल उठा रही है। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने उन सारे पत्रकारों की पोल खोल दी है, जो कथित रूप से लोकतंत्र के चौथे खंभे का भार ढोने का नाटक करते रहे है। डंका पीटने वाले, हर क़ीमत पर अपनी भूमिका निभाने का ढोंग करने वाले पत्रकारों ने सचमुच में एसपी के आदर्शों पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

सवाल है कि अगर आज एसपी होते, तो क्या 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में पत्रकारों की भूमिका वाला टेप चैनलों की लाइब्रेरी में धूल फांक रहा होता। नहीं, बिल्कुल नहीं ! एसपी के रहते ऐसा हरगिज़ नहीं होता। मुझे लगता है, सबसे पहले एसपी ही उन पत्रकारों की भूमिका पर सवाल उठाते और उन सबसे इसका जवाब मांगते। लेकिन उनके शिष्यों-सहयोगियों ने ठीक इसका उल्टा किया। यह बेहद शर्मनाक है। उनकी यह चुप्पी एसपी के आदर्शों पर सवाल उठाती है। वही एसपी जो अपने एक सहयोगी के एक राजनेता से थप्पड़ खाने के बाद मधुमेह के रोगी होते हुए भूख हड़ताल पर बैठ गए थे। आज उसी एसपी को थप्पड़ खाने वाले पत्रकार ने कटघरे में खड़ा कर दिया। दरअसल, ये थप्पड़ खाने वाले पत्रकार उसी थप्पड़ के बाद सुर्खियों में आए और आज एक बड़े मीडिया हाउस में बेहद मोटी तनख़्वाह पर बतौर प्रबंध संपादक हैं।

एसपी के बारे में उनका कहना है- "हालाँकि एस.पी.सिंह के साथ काम करने का सौभाग्य मुझे डेढ़ साल तक ही मिला लेकिन वो डेढ़ साल मेरे लिए सुनहरा समय था. मैंने अपनी जिंदगी में और पत्रकारिता के क्षेत्र में जो कुछ भी सीखा, सब उन्ही की देन है. यदि वे मेरे संपादक नहीं होते तो जिंदगी में बहुत सारी बातें मैं कभी सीख नहीं पाता और शायद एक अच्छा पत्रकार भी नहीं बन पाता. एस.पी.सिंह की जिंदगी का अर्जुन मैं कभी नहीं बन पाया. मैं एस.पी. की जिंदगी का एकलव्य ही रहा. हाँ ये बात जरूर है कि उन्होंने मेरा अंगूठा नहीं माँगा. एस.पी सिंह के साथ काम करने वाले बहुत सारे लोग उन्हें सालों से जानते थे और उनके शिष्यत्व को स्वीकारते थे और एस.पी.भी उनको अपना शिष्य मानते थे. लेकिन मेरे साथ स्थिति थोडी अलग थी. मैंने उनको गुरु मानते हुए, एकलव्य की तरह उनसे सीखा. एस.पी.सिंह महज बड़े पत्रकार ही नहीं बल्कि उससे भी बड़े इंसान थे लोकतंत्र में पत्रकारिता की भूमिका को वे बखूबी समझते थे कांशीराम ने जिस तरह से मुझ पर हाथ उठाया उसके बारे में जब एस.पी.सिंह को पता चला तो उन्होंने कहा कि यह एक पत्रकार पर हमला नहीं है बल्कि एक तरह से लोकतंत्र पर हमला है. किसी को भी किसी पत्रकार से ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए. इस प्रकरण के बाद पत्रकारों ने धरना-प्रदर्शन किया था और उस धरने में खुद एस.पी भी शामिल हुए जबकि उन्हें डायबिटीज़ की शिकायत थी. लेकिन उसके बावजूद उन्होंने पत्रकारों के कंधे-से-कंधा मिलाकर धरना-प्रदर्शन में भाग लिया. यह उनका बड़पपन था ऐसी वचनबद्धता (कमिटमेंट) बहुत कम संपादकों में देखने को मिलती है पत्रकारीय धर्म की रक्षा के लिए एसपी सिंह का पुलिस के लाठी-डंडे की परवाह किए बिना सड़क पर उतरना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी. हमलोग आज जो कुछ भी हैं उसमें उनका योगदान अहम है."

अब एस.पी.के बारे में इतना कुछ कहने वाला एक कथित बड़ा पत्रकार 2-जी स्पेक्ट्रम में पत्रकारों की मिलीभगत के मुद्दे पर मुंह पर ताला लगा ले, तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। यह चुप्पी तो यही साबित करता है कि उन्होंने अपने गुरु द्रोणाचार्य के साथ छल किया।  आज हर पत्रकार इसी बात का रोना रो रहा है कि वर्तमान पत्रकारिता कॉरपोरेट के हाथों में चली गई है, इसलिए हमारे हाथ बंधे हुए हैं। हम वही कर सकते हैं, जो आदेश हमें प्रबंधन देता है। लेकिन उन पत्रकारों से मेरा पूछना है कि देश में कौन सा प्रेस कांफ़्रेंस कुमार मंगलम बिड़ला, शोभना भरतिया, रूपर्ट मडोक, सुब्रत रॉय... कवर करने जाते हैं। 26/11 हादसे में क्या यही लोग जान पर खेलकर लाइव रिपोर्टिंग कर रहे थे। फिर कैसे पत्रकारिता कॉरपोरेट के हाथों में चली गई। हां, यह कहते हुए उन्हें शर्म आती है कि उनके लालच से तंग आकर पत्रकारिता की कमान उन पूंजीवादी ताक़तों को संभालना पड़ा। ऐसा ही एक वाकया पिछले दिनों पटना में हुआ। चुनाव में मीडि‍या की भूमि‍का पर एक गोष्ठीी थी। कई नामचीन और क्रांति‍कारी पत्रकारों ने इसमें शिरकत की। सबने इस बेबसी का रोना रोया कि‍ पत्रकारि‍ता कॉरपोरेट के हाथ चली गई और अब कोई पत्रकार कुछ नहीं कर सकता, पर कि‍सी ने पत्रकारों की अपनी रुचि‍ और लि‍प्सा ओं के कारण भ्रष्ट होते जाने की चर्चा तक नहीं की। समापन भषण देते हुए जब एक बड़े साहित्यकार ने यह मुद्दा उठाया, तो सभी पत्रकार अपनी बगलें झांक रहे थे। कोई भी पत्रकार इस पर कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।

और एक बात, सोमवार 22 नवंबर 2010 को देश के एक कथित प्रतिष्ठित अख़बार में पत्रकारिता के एक कथित जानी-मानी हस्ती का विज्ञापन आया, वह भी उनकी तस्वीर और चैनल के नाम के साथ। विज्ञापन में भ्रष्टाचार को सिरे से ख़त्म करने की बात कही गई थी। यानी कि पत्रकार अब चैनलों का प्रोमोशन भी करने लगे हैं। उनके चैनल तक तो बात ठीक थी, लेकिन चैनल का प्रमोशन, चैनल से उठकर अख़बारों तक आना कहां तक सही है। कल को दीवारों पर चैनलों की पोस्टर चिपकाते और पंपलेट छपवाकर बांटते कोई दिख जाए, तो हैरानी की बात नहीं होगी। प्रिंट मीडिया में तो यह प्रचलन काफ़ी पहले से चलता आ रहा है।  तो यह है हमारे  देश की आदर्श पत्रकारिता और आदर्श पत्रकारों का हाल।

सुधांशु चौहान