Monday, November 16, 2009

तुम्हें सब है पता मेरी मां...?

“ ...मां, मुझे माफ कर दो कि मैंने तुम्हें इस अग्नि परीक्षा मे धकेल दिया है। मैं तुम्हें भरोसा दिलाता हूं कि मैंने कुछ भी गलत नहीं किया। शायद ये मेरी किस्मत थी। मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं। मैं जानता हूं कि मै जो करने जा रहा हूं, वह तुम मुझे कभी नहीं करने दोगी। जब तक तुम यह लेटर पढ़ रही होगी, मैं जा चुका होऊंगा।” मीडिया पर हमला बोलते हुए उसने लिखा कि “ मीडिया ने मेरे खिलाफ एकतरफा राय बनाई है, बिना किसी सच्चाई के...वो बहुत पावरफुल हैं, मुझे जीने नहीं देंगे। अगर मैं आपके आस पास रहा तो आपकी जिंदगी भी नरक हो जाएगी। मैं सरेंडर कर रहा हूं, पता नहीं आपको देख भी पाऊंगा या नहीं, लेकिन आपके सिखाए आदर्शों पर चलने की कोशिश करूंगा।” यह किसी इमोशनल फिल्म का डायलॉग नहीं है, जिसमें एक आदर्श बेटा अपनी मां को असामाजिक लोगों से बचाने के लिए खुद को पुलिस के हाथों सरेंडर कर रहा है। वास्तव में यह एक चिट्ठी है, जिसे मनु शर्मा उर्फ सिद्धार्थ वशिष्ठ ने तिहाड़ जेल में सरेंडर करने के पहले अपनी मां के नाम लिखा है।
कौन है मनु शर्मा ?
संक्षेप में कहें, तो मनु शर्मा देश के पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के नाती हैं। वैसे चंडीगढ़ का रहने वाला यह शख्स कांग्रेस के वरिष्ठ नेता विनोद शर्मा का बिगड़ैल शहजादा है जो शराब, शवाब और कवाब का शौकीन है। दिल्ली की हर हाई-फाई पार्टी में शिरकत करना इसका शौक है। अरबों की संपत्ति में खेलता है यह शख्स। 
क्या हुआ उस रात ?
आपको याद होगा, तारीख 29 अप्रैल 1999
जी हां! वही मनु शर्मा, जिसने 29 अप्रैल 1999 की रात लगभग 2 बजे मॉडल जेसिका लाल की गोली मारकर हत्या कर दी थी। वह भी महज एक पैग शराब की खातिर। इस हत्याकांड का गवाह बना कुतुब कोलोनेड स्थित टेमेरिंड कोर्ट बार, जहां यह संगीन वारदात हुई। हत्या के लिए मनु ने दो गोलियां चलाई, जिसमें से एक छत से टकराई और दूसरे की शिकार जेसिका हुई।
हत्या में चार रसूखदार
हालांकि यह अलग बात है कि हत्या प्री प्लैन्ड नहीं था, लेकिन गुनाह तो गुनाह होता है। इस रात मनु के साथ कुल तीन और लोग थे, जो उसके इस गुनाह में बराबर के भागीदार थे। वे थे- कोका कोला कंपनी बॉटलिंग इंडिया के जनरल मैनेजर अमरदीप सिंह गिल उर्फ टोनी, इसी का एक दोस्त आलोक खन्ना और चौथा सबसे अहम व रसूखदारों में से एक तत्काल राज्य सभा के सदस्य डीपी यादव का बेटा विकास यादव। जी हां ! वही विकास यादव जिसने बड़ी ही बेरहमी से अपनी बहन के पुरूष मित्र नीतीश कटारा की हत्या की। यानी, जेसिका की हत्या के इस गुनाह में चार रसूखदार शामिल थे। वारदात के तुरंत बाद जेसिका को सफदरगंज इंक्लेव के अश्लोक हॉस्पिटल ले जाया गया, लेकिन केस गंभीर होने के कारण थोड़ी ही देर में जेसिका को अपोलो हॉस्पिटल भेज दिया गया, जहां उसकी मौत हो गई। वारदात के फौरन बाद, चारों फरार हो गए और इसी के साथ गवाहों व सबूतों के साथ छेड़छाड़ शुरू हो गई।
शिकंजा ! लेकिन ढीला पड़ गया
बार की मालकिन बीना रमानी ने केस दर्ज कराई। 4 मई को आलोक खन्ना और टोनी को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस की दबिश के करण, 19 मई को विकास यादव ने दिल्ली पुलिस के हेडक्वार्टर में सरेंडर कर दिया। 3 अगस्त 1999 को दिल्ली पुलिस ने मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के सामने इस केस की चार्ज शीट दाखिल की। इसमें मनु शर्मा के खिलाफ आईपीसी की धारा 302, 201, 120(b) तथा आर्म्स एक्ट 24,54,व 59 के तहत मुख्य अभियुक्त बनाया गया। जबकि अन्य गुनहगारों में विकास यादव, टोनी, आलोक खन्ना, श्याम सुंदर शर्मा, क्रिकेटर युवराज सिंह के पिता योगराज सिंह, अमित झिंगन, हरविंदर चोपड़ा, राजा चोपड़ा, विकास गिल, रवींद्र कृष्ण सुडान व धनराज के खिलाफ आईपीसी की धारा 302, 201, 212, 120(b) के तहत मामला दर्ज किया गया। पुलिस के सामने मनु शर्मा ने रिकॉर्डेड बयान में यह स्वीकार किया कि उसी ने जेसिका लाल की हत्या की। इस रिकॉर्ड को टीवी चैनल एनडीटीवी पर प्रसारित भी किया गया। लेकिन कोर्ट में अपने इस बयान से वह मुकर गया।
हत्या से तकदीर बदली
इस केस का ट्रायल अगस्त 1999 में शुरू हुआ। लेकिन इसके चार मुख्य गवाह, जिसमें से एक श्यान मुंशी भी था जो मॉडलिंग में करियर के लिए जद्दोजहद कर रहा था और जेसिका का दोस्त भी था। वह भी पुलिस के सामने दिए अपने बयान से मुकर गया। उसने कोर्ट का ध्यान भटकाने के लिए यह बयान दिया कि वारदात के समय मनु के पिस्तौल से एक ही गोली चली, जो छत से जा टकराई। दूसरी गोली किसी और ने चलाई, जो जेसिका को लगी। लेकिन उस दूसरे का तो कोई अता-पता ही नहीं था। दरअसल, दूसरा कोई था ही नहीं तो पता कैसे चलता। इस बयान से फॉरेंसिक रिपोर्ट भी प्रभावित हुई। कहा गया, इसने अपना करियर बनाने के लिए मोटी रकम ली और बयान बदल दिया। इस तरह इस शख्स ने जेसिका की हत्या का इस्तेमाल अपनी तकदीर बदलने में किया।
लाश पर कई मालामाल
इसके बाद इस केस की कई सुनवाई हुई जिसमें 100 से भी ज्यादा गवाहों ने अपने बयान दर्ज कराए, लेकिन ऐसा कोई भी गवाह सामने नहीं आया, जो निर्दोष जेसिका को इंसाफ दिलाने में अपनी भूमिका अदा करे। सबों ने झूठे बयान दिए। 21 फरवरी 2006 को दिल्ली ट्रायल कोर्ट के जज एसएल भयाना ने कुल 9 अभियुक्तों को रिहा कर दिया। केस के कुल 12 अभियुक्तों में मनु शर्मा, विकास यादव श्याम सुंदर शर्मा, टोनी, आलोक खन्ना, योगराज सिंह, हरविंदर चोपड़ा, विकास गिल और राज चोपड़ा को रिहा कर दिया गया, जबकि रवींद्र कृष्ण सुडान को फरार घोषित किया गया। हालांकि अमित झिंगान को पहले ही रिहा कर दिया गया था। इस तरह करीब सौ से ज्यादा गवाहों ने झूठे बयान दिए, जिसके लिए उन्होंने मोटी रकम ली। और देखते ही देखते एक लाश पर सैंकड़ो लोग मालामाल हो गए।

अभियुक्तों की रिहाई के पीछे कोर्ट ने तर्क दिया कि
1. पुलिस उस हथियार को बरामद करने में असफल रही है, जिससे जेसिका का कत्ल हुआ।
2. वारदात के तीनों चश्मदीद-शिवलाल यादव, श्यान मुंशी व करण राजपूत के बयानों का वारदात से कोई तालमेल नहीं
3. इसके अलावा, पुलिस घटना की सभी कड़ियों को जोड़ने में असफल रही है।
इस तरह सैंकड़ो गवाहों ने बयान बदलकर केस का रुख पूरी तरह मोड़ दिया। अब इस वारदात के सभी अभियुक्त आजाद थे। बिल्कुल वैसे पंछी की तरह जिसके पर कतर दिए गए हों, लेकिन वे फिर भी उड़ने में सक्षम हो। इससे इंसाफ का आस लगाए देश के करोड़ों लोगों को जबर्दस्त ठेस लगी। न्यायपालिका के लिए यह काला दिन था ? लोगों ने पूरे देश में जगह-जगह इसके विरोध में धरना-प्रदर्शन भी किया। लेकिन फैसला तो फैसला होता है।
तहलका का खुलासा
25 अप्रैल को दिल्ली हाईकोर्ट में लोअर कोर्ट के फैसले के खिलाफ एक अपील दाखिल की गई। इस केस में बिल्कुल नया मोड़ तब आया, जब समाचार पत्रिका तहलका ने एक स्टिंग ऑपरेशन में स्टार न्यूज टीवी चैनल पर साफ दिखाया कि कैसे गवाह खरीदते और बेचते हैं। विजुअल में साफ दिख रहा था कि मनु शर्मा के सांसद पिता गवाहों के हाथों में लाखों रुपये देते हुए, उनसे बयान बदलने के लिए कह रहे हैं। इसके बाद तो पूरे देश में जैसे बवाल मच गया। विनोद शर्मा को अपने पद से इस्तीफा तो देना पड़ा ही साथ ही कोर्ट को मनु शर्मा के खिलाफ एक ऐसा ठोस सबूत मिल गया, जो सभी गवाह व सबूतों पर भारी पड़ा। भई, इसलिए मीडिया के खिलाफ मनु शर्मा की नाराजगी तो जाहिर है, होगी ही!
आखिर हुई न्याय की जीत
20 दिसंबर 2006 को हाईकोर्ट के जस्टिस आरएस सोढी व पीके भसीन की खंडपीठ ने 61 पन्नों के अपने जजमेंट में मनु शर्मा को दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई। साथ ही विकास यादव व टोनी को साक्ष्य मिटाने के आरोप में 4 साल की सजा सुनाई। अब मनु शर्मा द्वारा चिट्ठी में यह लिखना कि “मां मैंने कुछ भी गलत नहीं किया। शायद ये मेरी किस्मत थी।” अगर ऐसा है, तो क्या उन्हें न्याय नहीं मिला है। हां ! उनके कर्म के अनुसार, उन्हें सही न्याय मिला है और यह हकीकत ही उनकी किस्मत है।
चिट्ठी की हकीकत
मनु शर्मा ने कोई प्लानिंग के तहत तो हत्या नहीं की, लेकिन गुनाह तो गुनाह होता है। चाहे वह होश में किया जाए या नशे में। सरेंडर करने के पहले मां के नाम लिखी गई चिट्ठी उनके पश्चाताप को दर्शाता है, लेकिन कानून की नजर में तो सब बराबर है। सही वक्त पर अगर उन्हें सही संस्कार दिया जाता, तो शायद यह नौबत ही नहीं आती। इसीलिए अपने किए का पश्चाताप तो उन्हें हर हाल में करना ही होगा।


इतने सारे तथ्यों के बावजूद,
. इस मुजरिम के लिए दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित द्वारा पैरोल के लिए पैरवी करना क्या लोकतंत्र के साथ धोखाधड़ी नहीं है ?
. जिन तीन कारणों के लिए पैरोल मांगे गए थे, दिल्ली पुलिस की जांच में वे कारण बिल्कुल झूठे और आधारहीन पाए गए। फिर शीला ने किस वजह पर पैरोल दी ?
. शीला दीक्षित ने पैरोल की अवधि भी एक महीने से बढ़ाकर दो महीने किस वजह से की ?
. मनु शर्मा के जब दिल्ली के पब में होने की सूचना मिली, तो तत्काल उनका पैरोल रद्द क्यों नहीं किया गया ?
. क्या आगे भी मनु शर्मा जैसे रसूखदारों को पैरोल मिलती रहेगी ?

सुधांशु चौहान

Sunday, November 8, 2009

दहशत के 5 घंटे

देश की सबसे महत्वपूर्ण ट्रेन राजधानी एक्सप्रेस पश्चिम बंगाल के झारग्राम में माओवादियों के कब्जे में करीब 5 घंटे तक रही। इस दौरान ट्रेन में सवार कुल 12 सौ यात्री उनके कब्जे में थे। उन सभी का एक-एक पल साल की तरह गुजर रहा था। मां को फिक्र थी कि शायद आज वह अपने बेटे को हमेशा के लिए खो देगी, उधर किसी के भाई को लग रहा था कि उसकी बहन के साथ सशस्त्र नक्सली कुछ ऐसा-वैसा न कर दें। सभी को खुद के साथ-साथ अपनों की चिंता खाए जा रही थी। उधर मिडिया से यह खबर आग की तरह फैल गई। पूरे देश में त्राहिमाम मच गया। कोई सुरक्षा व्यवस्था पर दोष मढ़ रहा था, तो कोई सरकार की नीतियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहा था।
दहशत के वो पल
किसी भी अनहोनी से अंजान ट्रेन के ड्राइवर के. आनंद राव अपनी धुन में मगन, ट्रेन को हवा की तरह हांके जा रहे थे, लेकिन झारग्राम के पास दूर से ही पटरी पर लाल झंडा और कटे हुए पेड़ के हिस्से देखकर उसके हाथ-पांव इमरजेन्सी ब्रेक पर अचानक ही चले गए। पहिये की चिंचियाहट के साथ हवा से बातें करती ट्रेन कुछ ही पलों में झारग्राम स्टेशन से आगे घनघोर जंगल में खड़ी थी। आगे के खतरे से अंजान लोग अपनी धुन में मगन थे। लेकिन अचानक उनकी नजरें सामने के दृश्य को देखकर जैसे पथरा सी गई। खौफ से उनके रोएं खड़े हो गए। उन्हें लगा कि बस अब कुछ ही पलों में उनकी कहानी खत्म होने वाली है। आखिर क्या देखकर उनके शरीर में भय की सिहरन सी दौड़ गई ?
मौत की आहट
वीआईपी ट्रेन के वीआईपी पैसेंजर की आंखें खिड़की के बाहर मौजूद दृश्यों को देखकर, मानो फटी की फटी रह गई। तीर-कमान, कुल्हाड़ी, तलवार, बरछी और भाले जैसे हथियारों से लैस आदिवासियों को देखकर लोग भय से कांपने लगे। भय तब कई गुणा और बढ़ गया, जब अचानक उनकी खिड़की के शीशे चकनाचूर होने लगे। मौत की आहट तब स्पष्ट सुनाई देने लगी, जब जबर्रदस्ती उनकी बोगी के दरवाजे खुलवा लिए गए। उनके सामने सैंकड़ो माओवादी मौत का साक्षात रूप धरे खड़े थे। यात्रियों को यही प्रतीत हो रहा था कि बस पल भर में उन्हें लूटकर उनसब को मौत की नींद सुला दी जाएगी। माओवादी सबको नीचे उतरने का आदेश देने लगे। न चाहकर भी लोगों को तलवार की धार देखकर वैसा ही करना पड़ा, जैसा उन्हें कहा गया। हालांकि धीरे-धीरे माओवादियों की उग्रता धीमी पड़ गई। उन्होंने किसी भी यात्री को चोट नहीं पहुंचाई। हां ट्रेन से खान-पान की सारी चीजें लूट ली गईं। एक यात्री राकेशचक्रवर्ती ने कहा, 'जैसे कहा, वैसे करते गए और बच गए'।
सलामती की कीमत
माओवादी नेता किशन जी ने कुल 12 सौ यात्रियों की सलामती की कीमत के रूप में कुख्यात नक्सली नेता छत्रधर महतो की रिहाई की मांग रखी, जिसे मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने एकसिरे से ठुकरा दिया। हालांकि माओवादियों को यकीन था कि थाना इंचार्ज के बदले महिला माओवादियों की तरह ही यह मामला भी आसानी से निबट जाएगा। लेकिन बुद्धदेव के रवैये को देखते हुए माओवादियों ने भांप लिया था कि इस बार उनकी नहीं चलने वाली। इस दौरान, सीआरपीएफ के जवान मौके पर पहुंच गए और माओवादियों को खदेड़कर ट्रेन को उनके कब्जे से छुड़ाकर उसे दिल्ली के लिए रवाना कर दिया गया।
लगी ममता हित साधने में
जहां भी यह खबर पहुंची कि दिल्ली-भुवनेश्वर राजधानी एक्सप्रेस को माओवादियों ने बंधक बना लिया है, सभी अपने तरफ से यात्रियों की सलामती के लिए दुआ मांग रहे थे। लेकिन समाज का एक वर्ग ऐसा भी था, जो 12 सौ यात्रियों की जिंदगी पर राजनीति की रोटी सेंक रहा था। वे थी देश की रेल मंत्री ममता बनर्जी और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य। उन्हें यात्रियों की जान से ज्यादा पश्चिम बंगाल के सरकार की चिंता सता रही थी। जब सारा देश यात्रियों की सलामती के लिए दुआएं कर रहा था, तब ममता पश्चिम बंगाल सरकार की बर्खास्तगी की मांग कर रही थी। ऐसे वक्त में उनकी केन्द्र सरकार से यह मांग कितना उचित है, इसका फैसला तो जनता ही करेगी, क्योंकि वे जनता की प्रतिनिधि हैं !
अंदर की बात
दरअसल, मुद्दा यह है कि पश्चिम बंगाल की सरकार पर ममता ने यह आरोप लगाया था कि बुद्धदेव सरकार की माओवादियों से सांठ-गांठ है। इसीलिए उन्होंने माओवादियों की बात को तुरंत मानकर महिला नक्सलियों को जमानत पर छुड़वा दिया था। यहां तक कि ममता ने कहा है कि माकपा-माओवादी भाई हैं। जब बुद्धदेव से इस बाबत बात की गई, तो उन्होंने इसे खारिज करते हुए बकवास बताया।

. अब सवाल यह है कि अगर पश्चिम बंगाल के राज्य सरकार के किसी प्रतिष्ठान में ऐसी घटना घटती तो- क्या बुद्धदेव इतनी जल्दी में माओवादियों को ना करने का कदम उठाते ?
. ममता को ऐसी विपत्ति की घड़ी में बुद्धदेव सरकार से बातचीत करनी चाहिए थी याउन्हें बर्खास्त करने की मांग करनी चाहिए थी ?
. क्या यात्रियों की जान इतनी सस्ती है कि वे ममता और बुद्धदेव सरकार की राजनीति के बलि का बकरा बनें ?

सुधांशु चौहान

“वंदे मातरम्” का कारोबार

लोकतंत्र में भी कारोबार होता है- वोट का, पद का, कमीशन (दलाली) का, प्रतिष्ठा का, फंड का, तुष्टीकरण का... आदि। लेकिन इससे इतर हाईलेवल पर भी एक कारोबार होता है, वह है मातृभूमि का कारोबार यानी सौदा। अक्सर हाईप्रोफाइल लोग इसे बेहद, थोड़ा परोसते हुए कहें, तो खूबसूरत तरीके से अंजाम देते हैं। अब यह अपना-अपना तरीका है, कोई इसे खुलेआम करता है तो कोई चोरी-चुपके। लेकिन कारोबार तो कारोबार है। लेकिन लोकतंत्र का कारोबार जरा हट के है। इसमें शर्म की कोई जगह नहीं होती, अगर सीधे कहें, तो बेशरमी की प्रधानता होती है। और इसके अंदाज का तो कहना ही क्या, बिल्कुल आधुनिक अंदाज में, बकायदा प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर। अगर आप कम टू द प्वाइंट कहेंगे, यानी निर्भय होकर खुलकर बात कहने की जिद करेंगे, वो भी अगर नौकरी नहीं जाने की संभावना हो, तो इस कारोबार को अपनी मातृभूमि को बेचने का कारोबार कह सकते हैं। जो आमतौर पर आजकल के नेता और लालफीते में लिपटे अफसर कर रहे हैं। उन्हें कोई झिझक भी नहीं होती। होगी भी क्यों भई ? कारोबार करते पकड़े गए तब तो कुछ होगा ! नहीं तो बल्ले-बल्ले। आखिर ये अंदर की बात है।
बेचारे असफल कारोबारी
अब झारखंड के मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को ही लें। जब से सुना है उनपर बेहद दया आ रही है। देश के वे पहले ऐसे लाल थे, जो निर्दलीय होकर भी मुख्यमंत्री बने। बेचारे आदिवासियों के नेता थे, उनके बिरादरी में उनसे एक आस जगी थी, खैर ! बेचारे की तबियत खराब है, लेकिन पुलिस है कि हथकड़ी लेकर अस्पताल के दरवाजे पर ही खड़ी है। इधर कोड़ा साहब हैं कि बेड से उठने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। आखिर उठें भी तो कैसे ? हवाला के कारण लाल हवेली जो बार-बार याद आ रही है। लेकिन क्या करें भई, इस कारोबार का तो यही हाल है, नहीं पकड़े गए तो बल्ले-बल्ले और पकड़े गए तो फिर क्या पछताना, जब चिड़ियां चुग गई खेत। ये बेचारे अपने कारोबार को बचा नहीं पाए। खैर !
वंदे के सारे बंदे !
भई, नया विवाद है, साथ ही इज्जत की भी तो बात है। आखिर वंदे के बंदे ही “वंदे” पर सवाल उठा रहे हैं। सवाल का मतलब कारोबार कर रहे हैं। हालांकि कोई चुपचाप है, तो कोई इसपर बिल्कुल जहर ही उगल रहा है। उद्भव ठाकरे तो उन लोगों को पाकिस्तान जाने की सलाह दे रहे हैं। यह सही है क्या ? कभी किसी ने अपने अब्बु पर सवाल उठाया, शायद नहीं। उठाता भी तो कैसे। दरअसल, अब्बु उसी वक्त संपत्ति से बेदखल जो कर देते। लेकिन देश की यह मिट्टी आखिर किसे बेदखल करेगी। “सारा जहां उसका है, लेकिन उसका कोई नहीं।“ यही तो बेचारगी है। अब पता नही अगला फतवा कब जारी हो। अगर जारी हुआ, तो आगे से शायद लोग अपने पिताजी या अब्बु, या डैडी का नमन नहीं करेंगे। करेंगे भी तो कैसे, हो सकता है वह आपके धर्म के खिलाफ हो। भई इसपर ज्यादा माथापच्ची मत करो। यह लोकतंत्र का कारोबार है, जो आम लोगों के पल्ले नहीं पड़ने वाला।
बाबा भी कारोबारी ?
भई, बाबा (रामदेव) से लोगों को बड़ी उम्मीदें हैं। होगा भी क्यों नहीं, आखिर करोड़ों का आश्रम चला रहे हैं। कोई मामूली आदमी थोड़े ही हैं। ऊपर से स्विस बैंक से भारत के काले धन को वापस लाने की बातें भी कर रहे हैं। सो लोगों ने काफी उम्मीदें लगा रखी थीं या हैं। यह अभी भविष्य के गर्भ में है। बात पर आएं, तो इसी साल की शुरुआत में दारुल उलूम ने फतवा जारी किया था कि बाबा रामदेव का योग गैर इस्लामिक यानी शरीयत के खिलाफ है। लेकिन जब बाबा जमीयत उलेमा हिंद के उस तीन दिवसीय अधिवेशन में पहुंचे, जिसमें वंदे मातरम् पर फतवा जारी किया गया था। लोगों को विश्वास था कि बाबा इसमें जरूर अपनी भड़ास निकालेंगे, लेकिन हुआ इसका उल्टा। लोगों ने बाद में कहा कि जमीयत उलेमा हिंद और बाबा में समझौता हो गया कि दोनों एक दूसरे का विरोध नहीं करेंगे। चलो, अधिवेशन में उलेमाओं ने जमकर योग का आनंद लिया साथ ही बाबा का कारोबार भी हुआ। लेकिन बाबा के खिलाफ अयोध्या के अखाड़ा परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष महंत ज्ञानदास के अलावा, अनगिनत संतों ने मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने सम्मेलन में योग गुरु स्वामी रामदेव की मौजूदगी पर सवाल उठाते हुए कहा कि पहले तो वे इस सम्मेलन में शामिल क्यों हुए ? यदि हुए तो इस तरह के प्रस्ताव का विरोध उन्होंने क्यों नहीं किया।
फंस गए चिदंबरम !
इस सम्मेलन में बाबा के साथ-साथ देश के गृहमंत्री पी.चिदंबरम भी थे। समझिए कि यह उनका दुर्भाग्य ही था। वो गांवों में कहावत है न “खेत खाए गदहा, मार खाए जुलाहा”। सो चिदंबरम पर भाजपा के उपाध्यक्ष नकवी ने प्रधानमंत्री से जवाबतलब कर दी कि क्या यह उचित है कि देश के गृह मंत्री एक ऐसे अधिवेशन के अतिथि बनें, जिसमें वंदे मातरम् पर फतवा जारी किया गया हो। साथ ही किन मजबूरियों के तहत गृहमंत्री ने इसके खिलाफ एक शब्द बोलना भी उचित नहीं समझा। उन्होंने यह भी पूछा है कि कांग्रेस की यह रणनीति तुष्टिकरण की है और इससे देश को नुकसान होगा।
भई, हो-हल्ला क्यों मचा है ?
बात दरअसल, हो-हल्ले वाली ही है।
चिदंबरम इस मुद्दे पर अपना मुंह खोलने से क्यों कतरा रहे हैं ? वे अपनी मजबूरियों से देश को अवगत क्यों नहीं करा रहे ? बाबा को पहले से ही पता था कि फतवा एक दिन पहले ही जारी हो चुका है, तो वे लोगों को यह बताएं कि वे इसमें शामिल क्यों हुए ?
आज़ादी की लड़ाई में चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, सिख या इसाई सबकी जुबान पर एक ही आवाज थी, “वंदे मातरम्।“ भगत सिंह के मुंह से भी शहीद होने के पहले दो ही शब्द निकले थे, “वंदे मातरम्।“ अशफाक उल्ला खां के मुंह से निकलने वाला अंतिम शब्द भी “वंदे मातरम्“ ही था। तो फिर आज यह सवाल क्यों ?

सुधांशु चौहान