Sunday, November 8, 2009

“वंदे मातरम्” का कारोबार

लोकतंत्र में भी कारोबार होता है- वोट का, पद का, कमीशन (दलाली) का, प्रतिष्ठा का, फंड का, तुष्टीकरण का... आदि। लेकिन इससे इतर हाईलेवल पर भी एक कारोबार होता है, वह है मातृभूमि का कारोबार यानी सौदा। अक्सर हाईप्रोफाइल लोग इसे बेहद, थोड़ा परोसते हुए कहें, तो खूबसूरत तरीके से अंजाम देते हैं। अब यह अपना-अपना तरीका है, कोई इसे खुलेआम करता है तो कोई चोरी-चुपके। लेकिन कारोबार तो कारोबार है। लेकिन लोकतंत्र का कारोबार जरा हट के है। इसमें शर्म की कोई जगह नहीं होती, अगर सीधे कहें, तो बेशरमी की प्रधानता होती है। और इसके अंदाज का तो कहना ही क्या, बिल्कुल आधुनिक अंदाज में, बकायदा प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर। अगर आप कम टू द प्वाइंट कहेंगे, यानी निर्भय होकर खुलकर बात कहने की जिद करेंगे, वो भी अगर नौकरी नहीं जाने की संभावना हो, तो इस कारोबार को अपनी मातृभूमि को बेचने का कारोबार कह सकते हैं। जो आमतौर पर आजकल के नेता और लालफीते में लिपटे अफसर कर रहे हैं। उन्हें कोई झिझक भी नहीं होती। होगी भी क्यों भई ? कारोबार करते पकड़े गए तब तो कुछ होगा ! नहीं तो बल्ले-बल्ले। आखिर ये अंदर की बात है।
बेचारे असफल कारोबारी
अब झारखंड के मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को ही लें। जब से सुना है उनपर बेहद दया आ रही है। देश के वे पहले ऐसे लाल थे, जो निर्दलीय होकर भी मुख्यमंत्री बने। बेचारे आदिवासियों के नेता थे, उनके बिरादरी में उनसे एक आस जगी थी, खैर ! बेचारे की तबियत खराब है, लेकिन पुलिस है कि हथकड़ी लेकर अस्पताल के दरवाजे पर ही खड़ी है। इधर कोड़ा साहब हैं कि बेड से उठने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। आखिर उठें भी तो कैसे ? हवाला के कारण लाल हवेली जो बार-बार याद आ रही है। लेकिन क्या करें भई, इस कारोबार का तो यही हाल है, नहीं पकड़े गए तो बल्ले-बल्ले और पकड़े गए तो फिर क्या पछताना, जब चिड़ियां चुग गई खेत। ये बेचारे अपने कारोबार को बचा नहीं पाए। खैर !
वंदे के सारे बंदे !
भई, नया विवाद है, साथ ही इज्जत की भी तो बात है। आखिर वंदे के बंदे ही “वंदे” पर सवाल उठा रहे हैं। सवाल का मतलब कारोबार कर रहे हैं। हालांकि कोई चुपचाप है, तो कोई इसपर बिल्कुल जहर ही उगल रहा है। उद्भव ठाकरे तो उन लोगों को पाकिस्तान जाने की सलाह दे रहे हैं। यह सही है क्या ? कभी किसी ने अपने अब्बु पर सवाल उठाया, शायद नहीं। उठाता भी तो कैसे। दरअसल, अब्बु उसी वक्त संपत्ति से बेदखल जो कर देते। लेकिन देश की यह मिट्टी आखिर किसे बेदखल करेगी। “सारा जहां उसका है, लेकिन उसका कोई नहीं।“ यही तो बेचारगी है। अब पता नही अगला फतवा कब जारी हो। अगर जारी हुआ, तो आगे से शायद लोग अपने पिताजी या अब्बु, या डैडी का नमन नहीं करेंगे। करेंगे भी तो कैसे, हो सकता है वह आपके धर्म के खिलाफ हो। भई इसपर ज्यादा माथापच्ची मत करो। यह लोकतंत्र का कारोबार है, जो आम लोगों के पल्ले नहीं पड़ने वाला।
बाबा भी कारोबारी ?
भई, बाबा (रामदेव) से लोगों को बड़ी उम्मीदें हैं। होगा भी क्यों नहीं, आखिर करोड़ों का आश्रम चला रहे हैं। कोई मामूली आदमी थोड़े ही हैं। ऊपर से स्विस बैंक से भारत के काले धन को वापस लाने की बातें भी कर रहे हैं। सो लोगों ने काफी उम्मीदें लगा रखी थीं या हैं। यह अभी भविष्य के गर्भ में है। बात पर आएं, तो इसी साल की शुरुआत में दारुल उलूम ने फतवा जारी किया था कि बाबा रामदेव का योग गैर इस्लामिक यानी शरीयत के खिलाफ है। लेकिन जब बाबा जमीयत उलेमा हिंद के उस तीन दिवसीय अधिवेशन में पहुंचे, जिसमें वंदे मातरम् पर फतवा जारी किया गया था। लोगों को विश्वास था कि बाबा इसमें जरूर अपनी भड़ास निकालेंगे, लेकिन हुआ इसका उल्टा। लोगों ने बाद में कहा कि जमीयत उलेमा हिंद और बाबा में समझौता हो गया कि दोनों एक दूसरे का विरोध नहीं करेंगे। चलो, अधिवेशन में उलेमाओं ने जमकर योग का आनंद लिया साथ ही बाबा का कारोबार भी हुआ। लेकिन बाबा के खिलाफ अयोध्या के अखाड़ा परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष महंत ज्ञानदास के अलावा, अनगिनत संतों ने मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने सम्मेलन में योग गुरु स्वामी रामदेव की मौजूदगी पर सवाल उठाते हुए कहा कि पहले तो वे इस सम्मेलन में शामिल क्यों हुए ? यदि हुए तो इस तरह के प्रस्ताव का विरोध उन्होंने क्यों नहीं किया।
फंस गए चिदंबरम !
इस सम्मेलन में बाबा के साथ-साथ देश के गृहमंत्री पी.चिदंबरम भी थे। समझिए कि यह उनका दुर्भाग्य ही था। वो गांवों में कहावत है न “खेत खाए गदहा, मार खाए जुलाहा”। सो चिदंबरम पर भाजपा के उपाध्यक्ष नकवी ने प्रधानमंत्री से जवाबतलब कर दी कि क्या यह उचित है कि देश के गृह मंत्री एक ऐसे अधिवेशन के अतिथि बनें, जिसमें वंदे मातरम् पर फतवा जारी किया गया हो। साथ ही किन मजबूरियों के तहत गृहमंत्री ने इसके खिलाफ एक शब्द बोलना भी उचित नहीं समझा। उन्होंने यह भी पूछा है कि कांग्रेस की यह रणनीति तुष्टिकरण की है और इससे देश को नुकसान होगा।
भई, हो-हल्ला क्यों मचा है ?
बात दरअसल, हो-हल्ले वाली ही है।
चिदंबरम इस मुद्दे पर अपना मुंह खोलने से क्यों कतरा रहे हैं ? वे अपनी मजबूरियों से देश को अवगत क्यों नहीं करा रहे ? बाबा को पहले से ही पता था कि फतवा एक दिन पहले ही जारी हो चुका है, तो वे लोगों को यह बताएं कि वे इसमें शामिल क्यों हुए ?
आज़ादी की लड़ाई में चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, सिख या इसाई सबकी जुबान पर एक ही आवाज थी, “वंदे मातरम्।“ भगत सिंह के मुंह से भी शहीद होने के पहले दो ही शब्द निकले थे, “वंदे मातरम्।“ अशफाक उल्ला खां के मुंह से निकलने वाला अंतिम शब्द भी “वंदे मातरम्“ ही था। तो फिर आज यह सवाल क्यों ?

सुधांशु चौहान

3 comments:

  1. very good articles.your raised questions are important for our society.

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  2. kya wayikye ye tumne likha hai,lagta ni,agar wayikye apne likha hai to mana padega boss acha likha hai....keep it up

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