Friday, January 28, 2011

बीबीसी हिंदी सेवा का बंद होना पत्रकारिता के लिए चुनौती

तमाम अटकलों को विराम लगाते हुए आख़िरकार बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ने भारत में हिंदी भाषा में शॉर्टवेव के ज़रिए अपनी रेडियो सेवा को बंद करने का फ़ैसला किया है। यह फ़ैसला ब्रिटेन में उस दिन लिया गया, जब भारत गणतंत्र दिवस की ख़ुशियां मनाने में मग्न था। हालांकि इसके कयास काफ़ी पहले से लगाए जा रहे थे। हिंदी के अलावे, कैरिबियाई देशों के लिए अंग्रेज़ी प्रसारण, अफ़्रीका के लिए पुर्तगाली भाषा में प्रसारण, मैसेडोनियाई और अल्बानियाई और सर्बियाई सेवाएं भी बंद कर दी जाएंगी। साथ ही मैडरिन, तुर्की, रूसी, यूक्रेनी, स्पेनिश, अज़ेरी और वियतनामी भाषा के रेडियो प्रसारण बंद हो जाएंगे। जो शॉर्टवेव प्रसारण बंद होंगे वे हैं- हिंदी, इंडोनिशयाई, स्वाहिली, नेपाली, किर्गिस और ग्रेट लेक्स के इलाक़े में हो रहे प्रसारण। फ़ारसी भाषा के शाम के रेडियो प्रसारण भी बंद किए जा रहे हैं। साथ ही अंग्रेज़ी भाषा के कुछ कार्यक्रम भी बंद किए जा रहे हैं।
   बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के प्रमुख पीटर हॉरॉक्स का इन कटौतियों के संबंध में कहना है कि सरकारी फ़ंडिंग में 16 फ़ीसदी की अहम कटौती की वजह से ये परिवर्तन किए जा रहे हैं।
  
प्रसारण में हो रहे इन कटौतियों की आलोचना चहुंओर हो रही है। हिंदी पट्टी के बीबीसी के श्रोताओं और पत्रकारों में इन कटौतियों पर काफ़ी हलचल है। बड़े शहरों में तो नहीं, लेकिन छोटे शहरों और गांवों-कस्बों में इस कटौती पर तीखी प्रतिक्रिया देखी जा रही है। श्रोता इस फ़ैसले से न सिर्फ़ हैरान हैं, बल्कि उन्हें इस बात पर सहसा विश्वास नहीं हो रहा कि उनका पसंदीदा कार्यक्रम, जिसे वे वर्षों से सुनते आ रहे हैं, अब रेडियो पर नहीं गूंजेगा। बीबीसी के श्रोताओं में इस बात को लेकर ग़हरी मायूसी है। लेकिन किया भी क्या जा सकता है। सात समंदर पार हुए इस फ़ैसले पर उनका कोई वश नहीं। अब न तो बीबीसी के समाचार वाचकों की मखमली आवाज़ उनके कानों में गूंजेगी, न ही देश-दुनिया मे हो रही घटनाओं पर उनके तीक्ष्ण विश्लेषण का मज़ा वे ले पाएंगे। ख़ैर! ...

बीबीसी लंदन से हिन्दी में प्रसारण पहली बार 11 मई, 1940 को हुआ था। इसी दिन विंस्टन चर्चिल ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने थे। बीबीसी हिन्दुस्तानी सर्विस के नाम से शुरू किए गए प्रसारण का उद्देश्य द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के ब्रितानी सैनिकों तक समाचार पहुंचाना था। पिछले सत्तर सालो से बीबीसी हिंदी सेवा हमतक सही और निष्पक्ष समाचार पहुंचा रही है। बांग्लादेश की लड़ाई हो या इंदिरा गांधी की हत्या या फिर कोई और बड़ी अंतर्राष्ट्रीय घटना, ऐसे अनेक मौक़ों पर बीबीसी हिन्दी सेवा विश्वसनीयता की कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरा। इसकी विश्वसनीयता ने इसकी लोकप्रियता का रास्ता अपने आप खोल दिया। एक स्वतंत्र सर्वेक्षण के अनुसार, इस समय भारत में करीब साढ़े तीन करोड़ लोग बीबीसी हिंदी सेवा प्रसारण सुनते हैं। भारत के बाहर भी दक्षिण एशिया और खाड़ी के देशों में बीबीसी हिंदी सेवा श्रोताओं की बड़ी संख्या है।

अब सवाल यह उठता है कि भारत जैसे देश में जहां कुल रेडियो प्रसारकों की संख्या दर्जनों में है। वहीं समाचार पत्रों और ख़बरिया टीवी चैनलों की भी बाढ़ है, फिर भी लोगों की पहली और एकमात्र पसंद बीबीसी ही क्यों है। वह भी आज से नहीं, बल्कि क़रीब 70 सालों से। उनकी जगह कोई भी नहीं ले पाया। आज़ादी देकर अंग्रेजों से तो हमने छुटकारा पा लिया, लेकिन अंग्रेज़ों के रेडियो प्रसारण की ग़ुलामी करने को हम आज भी मजबूर हैं। आख़िर क्यों? इसका सीधा सा जवाब है- ख़बरों की विश्वसनीयता और उसका तीक्ष्ण विश्लेषण, जो कहीं और न तो दिखाई पड़ता है और न ही सुनाई पड़ता है। आख़िर कारण क्या हैं?

आज़ादी मिलने के बाद मिशन पत्रकारिता का दौर ख़त्म हो गया। ऐसा लगता है, जैसे पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य आज़ादी दिलाना ही था, जो 1947 के बाद समाप्त हो गया। आज़ादी के बाद कुछ अख़बार जो पहले से प्रकाशित हो रहे थे, वे अनवरत छपते रहे और आज तक छप रहे हैं। पिछले बीस वर्षों में सैंकड़ों अख़बार, रेडियो प्रसारण, टीवी चैनल आस्तित्व में आए, तरह-तरह के नाम और तरह-तरह के उद्देश्यों के साथ। लेकिन बीबीसी सेवा यूं ही डटा रहा, कोई इसकी बराबरी करने के बारे में सोचने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाया। आख़िर क्यों? फिर सीधा सा जवाब होगा- इसकी विश्वसनीयता और विश्लेषण, जो सिर्फ़ बीबीसी के बूते की ही बात है। तमाम बातों पर ग़ौर फ़रमाते हुए कई सवाल उठ रहे हैं, जो देश की हिंदी पत्रकारिता पर सवाल खड़े कर रही है-
-क्या लोगों को ऑल इंडिया रेडियो पर भरोसा नहीं है?
-क्या बीबीसी के पत्रकार जन्मजात पत्रकार हैं?
-क्या ख़बरिया टीवी चैनल 24 घंटे यूंही बकबक करते हैं?
-देश के तमाम समाचार पत्र क्या राजनीतिक पार्टियों और सरकार के मुखपत्र बन चुके हैं?

बीबीसी हिंदी सेवा का बंद होना एक तरह से हिंदी पत्रकारिता के लिए चुनौती है। अब हिंदी पत्रकारिता जगत को यह फ़ैसला करना है कि वे अपने श्रोताओं, दर्शकों या पाठकों को बीबीसी जैसी कोई सुविधा दे पाते हैं, जो बीबीसी की कसौटी पर खरा उतरे। अगर ऐसा हो पाता है, तो शायद 70 सालों का मिथक टूटेगा!

सुधांशु चौहान
   

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