Tuesday, May 18, 2010

ब्राह्मणवादी विचार छोड़ लड़ना सीखिए

अपने काम के प्रति असंतोष हमेशा मेरे साथ रहा है। शायद ही कभी मुझे अपने काम से संतुष्टि मिली हो। जहां भी काम करता हूं, ख़ुद को हमेशा आंकने की कोशिश में रहता हूं कि बीते दिनों, काम के दौरान मैंने क्या सीखा? जो किया,क्या वह मेरे लिए संतोषप्रद था? कुछ नया या क्रिएटिव किया या नहीं? इतना ही नहीं, मेरे आसपास के सहकर्मी पत्रकारिता के सिद्धांतों के अनुरूप काम कर रहे हैं या नहीं, इस पर भी मेरी कड़ी निगाह रहती है। वैसी जगह मुझे काम करना बिल्कुल पसंद नहीं, जहां इनका अभाव हो। लेकिन करना पड़ता है और कर भी रहा हूं। परंतु अपने ईमान के साथ समझौता करके। काम के दौरान भन्नाता रहता हूं। पत्रकारिता के सिद्धांतों को लेकर हमेशा सहकर्मियों से अनबन हो जाती है। इसलिए हमेशा वैसे लोगों की तलाश में रहता हूं, जो पत्रकारिता को बतौर मिशन समझते हों। साथ ही उन कथित मिशनवादी पत्रकारों से मिलने के साथ-साथ उनके आस-पास ख़ुद के लिए जगह भी तलाशता रहता हूं।

काफ़ी अल्प समय में मैं वर्तमान पत्रकारिता के कई वरिष्ठ हस्ताक्षरों से मिला,जिनमें- आईबीएन-7 के प्रबंध संपादक आशुतोष, पहले आउटलुक और अब नई दुनिया के संपादक आलोक मेहता, प्रसिद्ध समकालीन कवि व पत्रकार विष्णु नागर, इंडिया मोस्ट वांडेड फ़ेम शोएब इलियासी प्रमुख हैं। लेकिन वह संतुष्टि नहीं मिली, जिसकी मुझे दरकार है। हाल ही में मेरी मुलाक़ात ज़ी न्यूज़ के संपादक व वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसूण वाजपेयी से हुई। पुण्य प्रसूण जी के व्यक्तित्व व कृतित्व का मेरे ऊपर गहरा प्रभाव रहा है, इसलिए इनसे मिलने की मेरी आकांक्षा काफ़ी पहले से थी। साथ ही उनके साथ काम करने की भी मेरी हार्दिक इच्छा रही है। हालांकि मैं नहीं समझता कि मेरी उम्र अभी उनके साथ काम करने की हुई है। क्योंकि उनके साथ जुड़ने के लिए अभी मुझे पत्रकारिता का बेहद लंबा अनुभव ग्रहण करना है। लेकिन उनसे मिलकर, मैं किसी उलझन में पड़ा जाउंगा मुझे कतई भान नहीं था। मुझे शायद यह पता नहीं था कि जिस मन के ज़ोर पर उनसे मिलूंगा, वही मन मुझे उलझन में डाल देगा।

दरअसल, पिछले दिनों मुलाक़ात के लिए मैं ज़ी न्यूज़ में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी जी के दफ़्तर गया था। हालांकि पहले दिन तो बिजी शेड्यूल के कारण उनसे मुलाक़ात नहीं हो पाई, लेकिन गार्ड ने टेलिफ़ोन से उनसे बात करवा दी। उन्होंने पूछा 'जी बोलिए क्या काम है।' मैंने कहा 'आपसे मिलना है।' उन्होंने पूछा 'किस संदर्भ में।' मैंने कहा 'आपसे व्यक्तिगत तौर पर मिलना है और किस संदर्भ में मिलना है, वह आपसे मिलने के बाद ही बताऊंगा।' इसके बाद उन्होंने अपना व्यक्तिगत मोबाइल नंबर मुझे देते हुए कहा कि आज तो मेरे पास वक़्त की कमी है, परसों सुबह बात करके आप मिलने आ जाइए। परसों जाकर मुलाक़ात हुई। वे रिसेप्शन रूम में दो महिलाओं को एक संक्षिप्त साक्षात्कार दे रहे थे। कमरे के अंदर प्रवेश कर मैंने उनके दोनों पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया। लेकिन मेरी इस क्रिया पर उनकी अजीब प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने बेहद अचरज भरी निगाहों से मेरी ओर देखा और कहा "यह क्या कर रहे हैं। यह ऑफ़िस है, कोई मंदिर थोड़े ही है। पत्रकार हो गए हैं न।"  यह कहते हुए उन्होंने मुझे अपने सामने की सीट पर बैठने के लिए कहा। बैठते हुए मैंने जवाब दिया 'जी, चार साल गुज़र चुके हैं।' तबतक दोनों महिलाएं उनसे विदा ले चुकी थीं। हाथों से अपने बगल में बैठने का इशारा करते हुए उन्होंने मुझसे पूछा, "कहां काम करते हैं।" काफ़ी संकोच और थोड़ा समय लेते हुए, मैं उनके बगल में बैठते हुए कहा पी7 न्यूज़ चैनल। फिर उन्होंने पूछा, "कहिए कैसे आना हुआ?" गहरी सांस लेकर मैं अपनी जगह से उठा और उनके सामने घुटने के बल खड़ा हो गया। इस वक़्त पता नहीं क्यों मेरी मनोदशा काफ़ी विचित्र सी हो गई थी। मेरा समूचा शरीर जैसे सूखे पत्तों की भांति अचानक कांपने लगा था। मैंने इसी अवस्था में उनसे कहा 'सर मैं पत्रकारिता में आपको अपना गुरु मानता हूं और मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप मुझे गुरुदीक्षा प्रदान करें।' अचानक ऐसा होते देखकर वे सन्न रह गए। मेरी ओर एक गहरी निगाह डालकर, उन्होंने मेरे कंधों को पकड़कर बड़े ही प्यार से उठाया। फिर मेज़ पर पड़ी मेरी डायरी को उन्होंने एक हाथ में लिया और दूसरे हाथ से मेरा एक हाथ पकड़कर मुझे साथ लिए केबिन से बाहर निकल आए। उन्होंने काफ़ी स्नेह भरे शब्दों के साथ मुझे कहा, "आपकी मनोस्थिति अभी ठीक नहीं है, आप कल मुझसे मिलें, फिर विस्तार से आपसे बात करेंगे, हां और आने के पहले मुझे फ़ोन ज़रूर कर लीजिएगा।" काफ़ी भारी मन से मैंने उनसे विदा ली।

इसके बाद तो मेरा मन एकाग्र होने का नाम ही नहीं ले रहा था। बार-बार यही ख़याल मेरे मन में आ रहा था कि उन्होंने मुझे बात करने के क़ाबिल भी नहीं समझा। यह बात मुझे पूरी रात सालती रही। उस रात मैं ठीक ढंग से सो भी नहीं पाया। सुबह जब ऑफ़िस पहुंचा, तो सबसे पहले मैंने उन्हें फ़ोन किया। मैंने सीधा उनसे कहा कि सर मैं आपके साथ काम करना चाहता हूं। इतना सुनकर वे ज़ोर से हंसे और बोले, "मैं तो आपके साथ काम करना चाहता हूं। आप ही मुझे कोई नौकरी दे दीजिए, मैं करुंगा।" फिर उन्होंने मुझे काफ़ी प्यार से समझाते हुए कहा, "देखिए यहां सबकुछ ख़ुद करना पड़ता है। किसी भी मुकाम तक पहुंचने के लिए ख़ुद मेहनत करनी पड़ती है। जहां तक आपके साथ मेरे काम करने का सवाल है, तो वह भी पूरी हो जाएगी समय के साथ। मिल जाएंगे, कहीं दोनों एक ही जगह काम करते हुए।" इसके बाद बातों का एक सिलसिला चल पड़ा जो अगले सात-आठ मिनट तक चला।

इसके कई दिनों बाद एक प्रश्न मेरे मस्तिस्क में अचानक कौंधा कि आख़िर पैर छूकर प्रणाम करने पर वे (पुण्य प्रसून वाजपेयी) मुझपर भड़के क्यों? क्या किसी का सम्मान करना पाप है? वह भी जब सामने का व्यक्ति अतियोग्य हो। उनसे मुलाक़ात के बाद मैं एक भारी उलझण में पड़ गया था। उलझण भी मैंने ख़ुद मोल ली थी, जो सैद्धांतिक थी। दरअसल, मेरे संस्कारों पर पहली बार किसी ने प्रश्न उठाया था। मैं अजीब सी उधेड़बुन में था। कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। यह तय नहीं कर पा रहा था मेरे संस्कारों में आख़िर कौन सी कमी रह गई, जिसके कारण मुझे आलोचना का शिकार होना पड़ा। काफ़ी दिनों तक मैं इस मनोदशा से पीड़ित रहा, लेकिन खु़द इसका उत्तर पाने में मैं विफल रहा। आख़िरकार मजबूर होकर मुझे उन्हें फिर से फ़ोन करना पड़ा। लेकिन उन्होंने मुझे जो उत्तर दिया उसने मेरी आंखें ही नहीं खोली, बल्कि मैं समझता हूं कि सफलता की ओर मेरा मार्ग प्रशस्त करने में यह मेरी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।  

"आप पत्रकार हैं न! आप पत्रकार हैं न जी और आपका पेट भरा हुआ है, इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं। छोड़िए इन ब्राह्मणवादी विचारों को, दूसरों के लिए लड़ना सीखिए। मैंने पलटकर जवाब दिया 'मैं समझ गया, मैं आपकी बातों को अच्छी तरह समझ गया। बहुत-बहुत धन्यवाद! धन्यवाद सर!"

सुधांशु चौहान

1 comment:

  1. सर आज के माहोल में जब छोटा सा आदमी भी अपने आप को बड़ा चढ़ा कर पेस करता है. आपने जिस तरह से ये ब्रितांत बताया, सच में आपके लिए इज्जत बन गयी.बहुत खूब सर धन्यबाद और बहुत अच्छा लगा आपकी इमानदारी देख कर.

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