Wednesday, February 10, 2010

आख़िर क्यों भड़कते हैं अल्पसंख्यक

सांप्रदायिकता की जो आग मो. अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने आज़ादी के ऐन मौक़े पर लगाई, वो शायद देश के बंटवारे के बाद भी नहीं बुझी है। आज भी इसकी चिंगारी लोगों को अपने आस-पास अनायास ही दिखाई पड़ जाती है। भारत के पंथ निरपेक्ष राष्ट्र बनने के बाद भी अल्पसंख्यक ख़ासकर मुसलमानों में असुरक्षा की वही भावना मौजूद है, जो देश के बंटवारे के समय थी। आज़ादी के 60 वर्ष बीतने के बाद भी मुसलमान ख़ुद को यहां महफ़ूज़ नहीं मानते। अगर इसकी गहराई से पड़ताल करें, तो हम पाते हैं कि इसके तार कहीं न कहीं अतीत से जुड़े हैं। आज़ादी के पूर्व से ही देश में सांप्रदायिक सदभाव, तुच्छ राजनीतिक भावनाओं की भेंट चढ़ता रहा है। मो. अली जिन्ना का यह बयान 'हिंदु-मुसलमान राष्ट्र एक नहीं हो सकते', सांप्रदायिक सदभाव बिगाड़ने में मील का पत्थर साबित हुआ। इसके बाद अंग्रेजी शासन के प्रति राजभक्त संस्था मुस्लिम लीग ने देश में भयानक दंगे करवाकर रही-सही कसर पूरी कर दी।

2008 में दिल्ली में हुए सीरियल बम विस्फोट में शामिल आतंकियों के तार जब यूपी के आजमगढ़ ज़िले से पाए गए, तो इस ज़िले के सारे मुसलमानों को हिकारत की नज़रों से देखा गया। यही नहीं आजमगढ़ को 'आतंकियों की राजधानी', तो कभी 'मिनी पाकिस्तान' कहा गया। मीडिया ने तो इसे 'आतंक की नर्सरी' तक की संज्ञा तक दे डाली। इस घटना के बाद आजमगढ़ के नौजवान मुसलमानों की गिरफ़्तारी का सिलसिला ही चल निकला। अभी कुछ दिनों पहले ही बाटला हाउस एनकाउंटर के फ़रार आतंकी शहजाद पप्पू और आतीफ़ आमीन को गिरफ़्तार किया गया। दोनों ही आजमगढ़ ज़िले से ताल्लुक रखते हैं। इनपर इंडियन मुजाहिदीन का सदस्य और 2008  में दिल्ली में हुए सीरियल बम ब्लास्ट में भी शामिल होने का आरोप है। हालांकि दिल्ली पुलिस के सामने शहजाद ने इस बात को कबूल भी कर लिया है। इसके बाद तो सभी ने इसकी पूरी पुष्टि कर दी की आजमगढ़ सचमुच में ही आतंकियों का गढ़ बन चुका है और यहां के मुसलमान देशद्रोह में लिप्त हैं। यही वाकया बाटला हाउस एककाउंटर के बाद जामिया नगर और पूरे जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में दुहराया गया।

इसके पहले बिहार के भागलपुर ज़िले में इसी से जुड़ा एक सांप्रदायिक हादसा होते-होते बचा। मामला था छिनतई के मुसलमान संप्रदाय के एक आरोपी को जनता द्वारा पहले पीटा जाना, फिर पुलिस द्वारा उसे मोटरसाइकिल में बांधकर दिनदहाड़े घसीटा जाना। जहां तक जनता द्वारा किसी अपराधी को पीटे जाने का सवाल है, तो यह परिस्थितियों की उपज है। एक तरह से यह सामाजिक दंड का हिस्सा मात्र है, जिसे रोकने में पुलिस के साथ-साथ न्यायालय भी विफल है। जहां तक उसे पुलिस द्वारा घसीटे जाने की बात है, तो यह पूरी तरह से मानवाधिकार के उल्लंघन से जुड़ा मामला है। समाज के किसी भी व्यक्ति को क़ानून अपने हाथ में लेने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। इस पूरी घटना पर बावेला तब मचा, जब ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे बेहद प्रमुखता से दिखाया। दिखाया भी जाना चाहिए, क्योंकि मीडिया को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की संज्ञा से नवाज़ा गया है। लेकिन जैसा कि यहां पहले से होता आया है कि ख़बरों को बेवजह इतना सनसनीख़ेज़ बना दिया जाता है कि लोगों की संवेदनाएं अनायास ही भड़क उठती हैं। ख़ासकर जब मामला दो संप्रदाय विशेष का हो, तब तो ऐसे दृश्य पेट्रोल सरीखे काम करते हैं। खैर!  इसे तो सनसनीख़ेज़ और व्यवसायिक पत्रकारिता समझकर नज़रंदाज़ किया जा सकता है, लेकिन देश के उन राजनीतिज्ञों की भूमिका को किस कटघरे में रखा जाए, जो दंगे भड़काने में अपनी ख़ास भूमिका अदा करते हैं। यही भूमिका पिछले दिनों अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ए. आर. अंतुले ने 26/11मुंबई हमले में शहीद एटीएस चीफ़ करकरे की मौत पर राजनीतिक रोटियां सेंक कर निभाई। उस वक्त इनका साथ कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी दिया। दिग्विजय सिंह भी यही भूमिका आजमगढ़ के मामले में दोहराने की कोशिश कर रहे हैं। इसके पहले, बिहार के ही भागलपुर ज़िले में ही वहां के नेताओं ने ने दंगा भड़काने की भरपूर कोशिश की, लेकिन वहां के लोगों की सामाजिक समरसता की तारिफ़ करनी होगी, जिन्होंने समय रहते इन नेताओं की घिनौनी साज़िश को पहचान लिया। नहीं तो जैसा होता आया है, बेगुनाहों पर दंगों का कहर टूटता। ऐसे मामलों में आजमगढ़, जामियानगर और भागलपुर अकेला नहीं है। आज़ादी के बाद कई छोटे और बड़े सांप्रदायिक दंगे भड़के, जिसमें हज़ारों बेगुनाहों की जान गई। आख़िर क्या वजह है कि देश के मुसलमान दिन-प्रतिदिन संवेदनशील होते जा रहे हैं? छोटी-छोटी बातों पर भी अति आक्रामक हो जाते हैं। कोई तो वजह होगी?  वजह बिल्कुल साफ़ है-

 भारत के पंथनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित होने के बाद भी यहां के ग़ैर मुसलमान यही मानते हैं कि मुसलमान मूलतः पाकिस्तानी हैं और देश के विभाजन के समय भारत न छोड़कर उन्होंने बहुत बड़ी ग़लती की। ऐसे लोग भारत को मूलतः हिंदू राष्ट्र मानते हैं, जहां मुसलमान मोजाहिर हैं। सन् 1992 में बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर ग़ैर मुसलमान संगठनों ने यह बताने की भरसक चेष्टा की कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और मुसलमानों का यहं कोई आस्तित्व नहीं है। इसके बाद गुजरात के गोधरा में तो उग्र हिंदुत्ववादी मानसिकता ने अपने स्तर से यह सिद्ध कर दिखाया कि संविधान निर्माताओं ने भारत को पंथनिरपेक्ष राष्ट्र बनाकर बहुत बड़ी ग़लती की। ऐसा इसलिए, क्योंकि गुजरात के दंगों में सरकारी तंत्र ने भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका हिंदुओं के पक्ष में अदा की। 

इसके अलावा, आए दिन कश्मीर में सेना द्वारा आतंकवादियों के संरक्षण देने के नाम पर वहां के औरतों, मर्दों व बच्चों पर जो कहर ढाया जाता है, वह किसी से छिपा नहीं है। आज हर मुसलमान को आतंकवादी और पाकिस्तान का कट्टर समर्थक की नज़रों से देखा जाता है। उनके साथ वहशियाना हरकतें की जाती हैं। हद तो तब हो गई, जब हाल में ही सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का खुलासा हुआ। इससे राजनीतिक हलकों में मानो तूफ़ान सा आ गया। आना भी स्वाभाविक था, क्योंकि पिछले साठ सालों से मुसलमानों के हितों की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञों का पर्दाफ़ाश जो हुआ। सबसे ग़ौरतलब तथ्य तो यह है कि आज भी मुसलमानों को जाने-अंजाने अपनी राष्ट्रभक्ति का सबूत देना पड़ता है, जो बात उन्हें सबसे अधिक सालती है।
उपरोक्त तथ्य मुसलमानों के मनोमस्तिस्क में इस कदर पैठ जमा चुका है कि विभिन्न परिस्थतियों में वह आक्रामकता के रूप में बाहर आती है, जो मूलतः अवसाद से ग्रसित होती है। इसके अलावा, मुसलमानों के मन में इस बात का घर बना लेना कि सांप्रदायिक दंगों के दौरान, सबसे ज़्यादा अहित उन्हीं का हुआ है और सरकार तथा पुलिस ने उनकी सुरक्षा के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाया। गुजरात का गोधरा और मुंबई इसका सबसे जीता-जागता उदाहरण है।

हालांकि इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि कुछ ऐसे कट्टरपंथी मुसलमान हैं, जो राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं और विभिन्न मौक़ों पर इसकी पुष्टि भी होती रही है। लेकिन केवल इस आधार पर तो देश के सारे मुसलमानों को शक की निगाह से देखना कतई मुनासिब नहीं होगा।
रवींद्र नाथ टैगोर का यह कथन ' हमारी संस्कृति एक पूर्ण विकसित कमल के समान है। इनमें से यदि एक भी पंखुड़ी विकृत या ठीक से पल्लवित नहीं होती, तो सारे पुष्प की हानि होती है'  भारत के संबंध में बिल्कुल ही प्रासंगिक है।
अतः जबतक मुस्लिम समुदाय के सदस्यों को शक की निगाह से देखा जाएगा और उनपर नाहक अत्याचार किया जाएगा, तबतक दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में अमन-चैन एक दिवास्वप्न ही रहेगा।

सुधांशु चौहान

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