Friday, February 5, 2010

महाराष्ट्र में भारतीय!

मुंबई की गलियों का एक आवारा गुंडा दूसरा जिन्ना बनने का स्वप्न देख रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में अलोकतांत्रिकता का खुल्लम-खुल्ला खेल चल रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दिनदहाड़े गला घोंटा जा रहा है। देश, जनता व सरकार सभी इसे मौन स्वीकृति प्रदान कर रहे हैं। हद तो तब हो गई, जब राज ठाकरे नाम के इस गुंडे ने देश के गृहमंत्री पर भद्दी टिप्पनियां की, वह भी बजाप्ता प्रेस कांफ़्रेंस कर। न कोई भय न कोई लज्जा। बात यहीं ख़त्म नहीं होती। उसने सोची-समझी राजनीति के तहत एक ऐसा बयान दे डाला, जिसे देने में मो. जिन्ना को भी अर्सा लगा था। उसने साफ़ तौर पर बिना लाग लपेट के कह डाला "कल अगर महाराष्ट्र को भारत से अलग करने की की मांग उठे, तो इसका ज़िम्मेदार मैं नहीं होऊंगा।"
ज़रा देश के संविधान पर ग़ौर करें-

"भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण
प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य
के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों कोः
  सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
  विचार अभिव्यक्ति, विश्वास धर्म
                 और उपासना की स्वतंत्रता,
  प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त करने के लिए, तथा उन सब में
  व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की
  एकता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता
बढ़ाने के लिए
दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान में
आज तारीख़ 26 नवंबर 1949 ई.(मिति मार्गशीर्ष
शुक्ला सप्तमी, संवत् दो हज़ार छ विक्रमी) को
एतद्द्वारा इस संविधान को अंङ्गीकृत अधि-
नियमित और आत्मसमर्पित करते हैं।"  

यह तो पूरे संविधान का सार-संक्षेप मात्र है, जिसका पालन देश के हर व्यक्ति को को करना है। संविधान देश का सर्वोच्च क़ानून है। सारे क़ानून इसी के आधार पर तैयार किए जाते हैं। लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि एक दो टके का गुंडा देश के इस सर्वोच्च क़ानून की खुलेआम धज्जियां उड़ा रहा है और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। आख़िर क्या कारण हैं?

 विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रताः  यह देश के हर नागरिक को अपनी बातों को लोकतांत्रिक तरीक़े से रखने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। लेकिन शायद महाराष्ट्र अकेला ऐसा राज्य है, जहां यह क़ानून लागू नहीं होता। तभी तो यहां खुलेआम प्रेस पर हमले किए जाते हैं। 'व्यक्ति के लिए राष्ट्रीयता सर्वोच्च होता है। उससे बढ़कर कुछ नहीं।' लेकिन यहां ख़ुद को भारतीय कहना जैसे महापाप है। सचिन तेंदुलकर, अमिताभ बच्चन, मनोज तिवारी, शाहरुख़ ख़ान को इसकी सज़ा मिल चुकी है। इन लोगों ने ख़ुद को जब भारतीय होने का गर्व दिलाने की कोशिश की, तो इनका सिर कुचल दिया गया। ऐसे में शाहरुख़ का देश से यह पूछना कितना जायज़ और कितना नाजायज़ है कि 'मैं अपनी उस कौन सी बात को वापस कर लूं, जिससे शिवसेना और मनसे का मन शांत हो जाए। यही कि मैं भारतीय हूं।' ग़ौरतलब है कि इन सभी ने ख़ुद को भारतीय कहा था, जिसका मनसे और शिवसेना ने तगड़ा विरोध किया था। यहां तक कि उनके घर के बाहर धरना-प्रदर्शन भी किया गया। उनकी फ़िल्मों के पोस्टर फाड़ डाले गए। हालांकि इसके काफ़ी पहले से मनसे और शिवसेना हिंदी भाषा और हिंदी भाषियों का विरोध करता रहा है। यहां तक कि विधानसभा में मुंबई से समाजवादी पार्टी के एक विधायक के हिंदी में शपथ ग्रहण करने के दौरान उनपर थप्पड़ तक चलाई गई।

प्रतिष्ठा व अवसर की समताः महाराष्ट्र में शिवसेना, मनसे साथ ही कांग्रेस का कहना है कि यहां केवल मराठियों को ही रोज़ी-रोटी कमाने का अधिकार है। यह अधिकार हिंदीभाषियों पर लागू नहीं होती। तभी तो इन तीनों राजनीतिक दलों को केवल मराठियों के लिए यहां टैक्सी चलाने के लिए क़ानून तक बनाने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई।        

व्यक्ति की गरिमाः शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे, उनके बेटे उद्धव ठाकरे व मनसे प्रमुख राज ठाकरे को किसी भी व्यक्ति की गरिमा को रौंदने में चंद सेंकंड भी नहीं लगता। उत्तर भारतीयों की गरिमा को तो वे एक लंबे अर्से से रौंद ही रहे थे, लेकिन हद की इंतहां तब हो गई, जब उन्होंने देश के गृहमंत्री को लुंगी संभालने की नसीहत दे डाली। वे यहीं नहीं रुके, उन्होंने अंबानी को लुटेरा तथा राहुल गांधी को रोमपुत्र और उनके सींग निकलने की बात भी कही।

राष्ट्र की एकताः अब राष्ट्र की एकता व अखंडता का कितना ख़याल ठाकरे परिवार को है यह तो राज ठाकरे के इसी बयान से पता चल जाता है 'कल अगर महाराष्ट्र को भारत से अलग करने की की मांग परवान चढ़े, तो इसका ज़िम्मेदार मैं नहीं होऊंगा।'

युवराज का लड़कपनः कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी बिहार में अपनी उखड़ी हुई ज़मीन को दोबारा वापस करने की जद्दोजहद में बिहार के दौरे पर थे। ज़ाहिर है बिहारवासियों का दिल जीतने के लिए वे वह सब कुछ कर गुजरना चाहते थे, जिससे उनकी खोई ज़मीन उन्हें वापस मिल सके। सो उन्होंने मुंबई में बिहारियों पर हो रहे हमलों के वक्तव्यों को ही अपना हथियार बनाया। लेकिन अपने इस हथियार को धार देने में वे एक राष्ट्रवाद को भूलकर राजनीति की भाषा पर उतर आए। समय भी माकूल था, क्योंकि इस समय मुंबई में ठाकरे परिवार उत्तर भारतीयों के ख़िलाफ़ आग उगल रहे थे। सो राहुल ने कहा, ' जब मुंबई पर आतंकी हमला हुआ, तो उसे बचाने बिहार और यूपी के लोग ही आए। उस समय ठाकरे कहां थे। उस समय उन्होंने उन जवानों को वापस जाने के लिए क्यों नहीं कहा।' दरअसल, इस तरह का वक्तव्य किसी भी सभ्य व्यक्ति को शोभा नहीं देता, वह भी ख़ासकर किसी राजनेता को तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि एक सैनिक के बारे में ऐसी बात कहकर हम उसके राष्ट्रवाद पर उंगली उठा रहे हैं। भला  एक सैनिक का अपने राष्ट्र में कोई मजहब और प्रांत होता है। उनके लिए तो राष्ट्र का हर टुकड़ा हर मजहब एकसमान है। ऐसे में राहुल न सिर्फ़ उन शहीदों की शहादत पर लांछन लगाने के अभियुक्त हैं, बल्कि देश की सेना को भी बांटने के आरोप के कसूरवार हैं।

भाजपा का मौनः राज और बाल ठाकरे ने उत्तर भारतीयों के ख़िलाफ़ जितना भी ज़हर उगला उसमें भाजपा भी बराबर की हिस्सेदारी रही। इस पूरे प्रकरण में तत्कालीन और पूर्व भाजपाध्यक्ष आडवाणी का मुंह जैसे सिल गया था। उन्होंने बिल्कुल चुप्पी साध ली। देश का विपक्ष, दूसरी सबसे बड़ी पार्टी और शिवसेना का सहयोगी होने के नाते भाजपा की क्या कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती थी? हालिया प्रकरण में वर्तमान अध्यक्ष नितीन गडकरी भी इस पूरे विवाद पर टिप्पणी करने से बचे और उन्होंने अपने बदले संघ के मोहन भागवत को ढाल बना लिया। भाजपा के लिए क्या यह शोभनीय और माफ़ी के लायक हरकत है?

कांग्रेस की स्वीकृतिः मुंबई में जब भी उत्तर भारतीयों पर हमले हुए कांग्रेस ने चुप्पी साधे रखी। क्या यह राज के पक्ष में मौन स्वीकृति की ओर इशारा नहीं करती? क्या कारण थे कि राज ठाकरे के ख़िलाफ़ कोई भी कड़ा क़दम नहीं उठाया गया? जबकि उनके ख़िलाफ़ स्पष्ट रूप से राजद्रोह का मुक़दमा बनता था और बनता है।
दरअसल, कांग्रेस को राज की राजनीति से फ़ायदा हो रहा है। क्योंकि राज ठाकरे जितने मज़बूत होते जा रहे हैं, शिवसेना उतना ही कमज़ोर होता जा रहा है। महाराष्ट्र में हुए हालिया चुनाव में राज ने यह सिद्ध कर दिखाया। आंकड़ों के खेल में शिवसेना पिछड़ गई, जिसका सीधा लाभ कांग्रेस को मिला। क्योंकि राज ठाकरे शिवसेना के कैडर वोट बैंक में सेंध लगाने में पूरी तरह कामयाब रहे। साथ ही वे महाराष्ट्र में जितना ही विवादित होते जा रहे हैं, उन्हें इसका उतना ही फ़ायदा होता दिख रहा है। फलतः शिवसेना की ताकत दिन ब दिन क्षीण होती जा रही है। इस बात को कांग्रेस पूरी तरह समझकर ही राज ठाकरे को मनमानी करने की अप्रत्यक्ष छूट दे रहा है। और यही कारण है कि जब राहुल गांधी मुंबई जाने वाले थे, तो इसका विरोध मनसे ने नहीं बल्कि शिवसेना ने किया। क्योंकि मनसे और कांग्रेस के बीच, आपसी फ़ायदे को लेकर कहीं न कहीं जुड़ाव है।


बहरहाल, महाराष्ट्र की राजनीति के गंदे खेल में शिवसेना, मनसे, कांग्रेस और भाजपा सभी बराबर के हिस्सेदार हैं। सभी अपनी रोटियां सेंक रहे हैं और ख़ामियाजा उठाना पड़ रहा है बेचारे उन उत्तर भारतीयों को, जो दो जून की रोटी की तलाश में बरसों से मुंबई में हैं।

लेकिन वोट बैंक का यह राजनीतिक खेल देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए न सिर्फ़ ख़तरनाक है, बल्कि भविष्य के लिए ख़तरे की घंटी है।

सुधांशु चौहान

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