Friday, January 28, 2011

बीबीसी हिंदी सेवा का बंद होना पत्रकारिता के लिए चुनौती

तमाम अटकलों को विराम लगाते हुए आख़िरकार बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ने भारत में हिंदी भाषा में शॉर्टवेव के ज़रिए अपनी रेडियो सेवा को बंद करने का फ़ैसला किया है। यह फ़ैसला ब्रिटेन में उस दिन लिया गया, जब भारत गणतंत्र दिवस की ख़ुशियां मनाने में मग्न था। हालांकि इसके कयास काफ़ी पहले से लगाए जा रहे थे। हिंदी के अलावे, कैरिबियाई देशों के लिए अंग्रेज़ी प्रसारण, अफ़्रीका के लिए पुर्तगाली भाषा में प्रसारण, मैसेडोनियाई और अल्बानियाई और सर्बियाई सेवाएं भी बंद कर दी जाएंगी। साथ ही मैडरिन, तुर्की, रूसी, यूक्रेनी, स्पेनिश, अज़ेरी और वियतनामी भाषा के रेडियो प्रसारण बंद हो जाएंगे। जो शॉर्टवेव प्रसारण बंद होंगे वे हैं- हिंदी, इंडोनिशयाई, स्वाहिली, नेपाली, किर्गिस और ग्रेट लेक्स के इलाक़े में हो रहे प्रसारण। फ़ारसी भाषा के शाम के रेडियो प्रसारण भी बंद किए जा रहे हैं। साथ ही अंग्रेज़ी भाषा के कुछ कार्यक्रम भी बंद किए जा रहे हैं।
   बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के प्रमुख पीटर हॉरॉक्स का इन कटौतियों के संबंध में कहना है कि सरकारी फ़ंडिंग में 16 फ़ीसदी की अहम कटौती की वजह से ये परिवर्तन किए जा रहे हैं।
  
प्रसारण में हो रहे इन कटौतियों की आलोचना चहुंओर हो रही है। हिंदी पट्टी के बीबीसी के श्रोताओं और पत्रकारों में इन कटौतियों पर काफ़ी हलचल है। बड़े शहरों में तो नहीं, लेकिन छोटे शहरों और गांवों-कस्बों में इस कटौती पर तीखी प्रतिक्रिया देखी जा रही है। श्रोता इस फ़ैसले से न सिर्फ़ हैरान हैं, बल्कि उन्हें इस बात पर सहसा विश्वास नहीं हो रहा कि उनका पसंदीदा कार्यक्रम, जिसे वे वर्षों से सुनते आ रहे हैं, अब रेडियो पर नहीं गूंजेगा। बीबीसी के श्रोताओं में इस बात को लेकर ग़हरी मायूसी है। लेकिन किया भी क्या जा सकता है। सात समंदर पार हुए इस फ़ैसले पर उनका कोई वश नहीं। अब न तो बीबीसी के समाचार वाचकों की मखमली आवाज़ उनके कानों में गूंजेगी, न ही देश-दुनिया मे हो रही घटनाओं पर उनके तीक्ष्ण विश्लेषण का मज़ा वे ले पाएंगे। ख़ैर! ...

बीबीसी लंदन से हिन्दी में प्रसारण पहली बार 11 मई, 1940 को हुआ था। इसी दिन विंस्टन चर्चिल ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने थे। बीबीसी हिन्दुस्तानी सर्विस के नाम से शुरू किए गए प्रसारण का उद्देश्य द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के ब्रितानी सैनिकों तक समाचार पहुंचाना था। पिछले सत्तर सालो से बीबीसी हिंदी सेवा हमतक सही और निष्पक्ष समाचार पहुंचा रही है। बांग्लादेश की लड़ाई हो या इंदिरा गांधी की हत्या या फिर कोई और बड़ी अंतर्राष्ट्रीय घटना, ऐसे अनेक मौक़ों पर बीबीसी हिन्दी सेवा विश्वसनीयता की कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरा। इसकी विश्वसनीयता ने इसकी लोकप्रियता का रास्ता अपने आप खोल दिया। एक स्वतंत्र सर्वेक्षण के अनुसार, इस समय भारत में करीब साढ़े तीन करोड़ लोग बीबीसी हिंदी सेवा प्रसारण सुनते हैं। भारत के बाहर भी दक्षिण एशिया और खाड़ी के देशों में बीबीसी हिंदी सेवा श्रोताओं की बड़ी संख्या है।

अब सवाल यह उठता है कि भारत जैसे देश में जहां कुल रेडियो प्रसारकों की संख्या दर्जनों में है। वहीं समाचार पत्रों और ख़बरिया टीवी चैनलों की भी बाढ़ है, फिर भी लोगों की पहली और एकमात्र पसंद बीबीसी ही क्यों है। वह भी आज से नहीं, बल्कि क़रीब 70 सालों से। उनकी जगह कोई भी नहीं ले पाया। आज़ादी देकर अंग्रेजों से तो हमने छुटकारा पा लिया, लेकिन अंग्रेज़ों के रेडियो प्रसारण की ग़ुलामी करने को हम आज भी मजबूर हैं। आख़िर क्यों? इसका सीधा सा जवाब है- ख़बरों की विश्वसनीयता और उसका तीक्ष्ण विश्लेषण, जो कहीं और न तो दिखाई पड़ता है और न ही सुनाई पड़ता है। आख़िर कारण क्या हैं?

आज़ादी मिलने के बाद मिशन पत्रकारिता का दौर ख़त्म हो गया। ऐसा लगता है, जैसे पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य आज़ादी दिलाना ही था, जो 1947 के बाद समाप्त हो गया। आज़ादी के बाद कुछ अख़बार जो पहले से प्रकाशित हो रहे थे, वे अनवरत छपते रहे और आज तक छप रहे हैं। पिछले बीस वर्षों में सैंकड़ों अख़बार, रेडियो प्रसारण, टीवी चैनल आस्तित्व में आए, तरह-तरह के नाम और तरह-तरह के उद्देश्यों के साथ। लेकिन बीबीसी सेवा यूं ही डटा रहा, कोई इसकी बराबरी करने के बारे में सोचने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाया। आख़िर क्यों? फिर सीधा सा जवाब होगा- इसकी विश्वसनीयता और विश्लेषण, जो सिर्फ़ बीबीसी के बूते की ही बात है। तमाम बातों पर ग़ौर फ़रमाते हुए कई सवाल उठ रहे हैं, जो देश की हिंदी पत्रकारिता पर सवाल खड़े कर रही है-
-क्या लोगों को ऑल इंडिया रेडियो पर भरोसा नहीं है?
-क्या बीबीसी के पत्रकार जन्मजात पत्रकार हैं?
-क्या ख़बरिया टीवी चैनल 24 घंटे यूंही बकबक करते हैं?
-देश के तमाम समाचार पत्र क्या राजनीतिक पार्टियों और सरकार के मुखपत्र बन चुके हैं?

बीबीसी हिंदी सेवा का बंद होना एक तरह से हिंदी पत्रकारिता के लिए चुनौती है। अब हिंदी पत्रकारिता जगत को यह फ़ैसला करना है कि वे अपने श्रोताओं, दर्शकों या पाठकों को बीबीसी जैसी कोई सुविधा दे पाते हैं, जो बीबीसी की कसौटी पर खरा उतरे। अगर ऐसा हो पाता है, तो शायद 70 सालों का मिथक टूटेगा!

सुधांशु चौहान
   

Thursday, November 25, 2010

एसपी होते तो पत्रकारों के टेप चलते या धूल खाते?

मुझे एसपी से मिलने या काम करने का अवसर कभी नहीं मिला, क्योंकि जब मैं धरती पर आया तबतक एसपी जा चुके थे। मैंने बस उन्हें तस्वीरों में देखा है और उनसे मुतल्लिक कई बातें सुनी हैं। जहां तक मुझे लगता है, उनके जाने के बाद न तो उनकी जगह कोई नहीं ले पाया और शायद कोई ले भी नहीं पाएगा।  एसपी के कुछ कट्टर विरोधी लोग भी मीडिया में हैं। उन्हीं में से किसी के मुंह से कुछ बातें सुनने के बाद लिखने को मजबूर हुआ। दरअसल, 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारों की भूमिका पर उठे सवालों पर बिल्कुल ख़ामोशी है। पत्रकारों का एक बड़ा कुनबा इस संगीन मुद्दे को उठाना तो दूर, इस पर चर्चा करने से भी कन्नी काट रहे हैं और यही चुप्पी एस.पी. के कथित शिष्यों या सहयोगियों पर कई तरह के सवाल उठा रही है। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने उन सारे पत्रकारों की पोल खोल दी है, जो कथित रूप से लोकतंत्र के चौथे खंभे का भार ढोने का नाटक करते रहे है। डंका पीटने वाले, हर क़ीमत पर अपनी भूमिका निभाने का ढोंग करने वाले पत्रकारों ने सचमुच में एसपी के आदर्शों पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

सवाल है कि अगर आज एसपी होते, तो क्या 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में पत्रकारों की भूमिका वाला टेप चैनलों की लाइब्रेरी में धूल फांक रहा होता। नहीं, बिल्कुल नहीं ! एसपी के रहते ऐसा हरगिज़ नहीं होता। मुझे लगता है, सबसे पहले एसपी ही उन पत्रकारों की भूमिका पर सवाल उठाते और उन सबसे इसका जवाब मांगते। लेकिन उनके शिष्यों-सहयोगियों ने ठीक इसका उल्टा किया। यह बेहद शर्मनाक है। उनकी यह चुप्पी एसपी के आदर्शों पर सवाल उठाती है। वही एसपी जो अपने एक सहयोगी के एक राजनेता से थप्पड़ खाने के बाद मधुमेह के रोगी होते हुए भूख हड़ताल पर बैठ गए थे। आज उसी एसपी को थप्पड़ खाने वाले पत्रकार ने कटघरे में खड़ा कर दिया। दरअसल, ये थप्पड़ खाने वाले पत्रकार उसी थप्पड़ के बाद सुर्खियों में आए और आज एक बड़े मीडिया हाउस में बेहद मोटी तनख़्वाह पर बतौर प्रबंध संपादक हैं।

एसपी के बारे में उनका कहना है- "हालाँकि एस.पी.सिंह के साथ काम करने का सौभाग्य मुझे डेढ़ साल तक ही मिला लेकिन वो डेढ़ साल मेरे लिए सुनहरा समय था. मैंने अपनी जिंदगी में और पत्रकारिता के क्षेत्र में जो कुछ भी सीखा, सब उन्ही की देन है. यदि वे मेरे संपादक नहीं होते तो जिंदगी में बहुत सारी बातें मैं कभी सीख नहीं पाता और शायद एक अच्छा पत्रकार भी नहीं बन पाता. एस.पी.सिंह की जिंदगी का अर्जुन मैं कभी नहीं बन पाया. मैं एस.पी. की जिंदगी का एकलव्य ही रहा. हाँ ये बात जरूर है कि उन्होंने मेरा अंगूठा नहीं माँगा. एस.पी सिंह के साथ काम करने वाले बहुत सारे लोग उन्हें सालों से जानते थे और उनके शिष्यत्व को स्वीकारते थे और एस.पी.भी उनको अपना शिष्य मानते थे. लेकिन मेरे साथ स्थिति थोडी अलग थी. मैंने उनको गुरु मानते हुए, एकलव्य की तरह उनसे सीखा. एस.पी.सिंह महज बड़े पत्रकार ही नहीं बल्कि उससे भी बड़े इंसान थे लोकतंत्र में पत्रकारिता की भूमिका को वे बखूबी समझते थे कांशीराम ने जिस तरह से मुझ पर हाथ उठाया उसके बारे में जब एस.पी.सिंह को पता चला तो उन्होंने कहा कि यह एक पत्रकार पर हमला नहीं है बल्कि एक तरह से लोकतंत्र पर हमला है. किसी को भी किसी पत्रकार से ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए. इस प्रकरण के बाद पत्रकारों ने धरना-प्रदर्शन किया था और उस धरने में खुद एस.पी भी शामिल हुए जबकि उन्हें डायबिटीज़ की शिकायत थी. लेकिन उसके बावजूद उन्होंने पत्रकारों के कंधे-से-कंधा मिलाकर धरना-प्रदर्शन में भाग लिया. यह उनका बड़पपन था ऐसी वचनबद्धता (कमिटमेंट) बहुत कम संपादकों में देखने को मिलती है पत्रकारीय धर्म की रक्षा के लिए एसपी सिंह का पुलिस के लाठी-डंडे की परवाह किए बिना सड़क पर उतरना अपने आप में बहुत बड़ी बात थी. हमलोग आज जो कुछ भी हैं उसमें उनका योगदान अहम है."

अब एस.पी.के बारे में इतना कुछ कहने वाला एक कथित बड़ा पत्रकार 2-जी स्पेक्ट्रम में पत्रकारों की मिलीभगत के मुद्दे पर मुंह पर ताला लगा ले, तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। यह चुप्पी तो यही साबित करता है कि उन्होंने अपने गुरु द्रोणाचार्य के साथ छल किया।  आज हर पत्रकार इसी बात का रोना रो रहा है कि वर्तमान पत्रकारिता कॉरपोरेट के हाथों में चली गई है, इसलिए हमारे हाथ बंधे हुए हैं। हम वही कर सकते हैं, जो आदेश हमें प्रबंधन देता है। लेकिन उन पत्रकारों से मेरा पूछना है कि देश में कौन सा प्रेस कांफ़्रेंस कुमार मंगलम बिड़ला, शोभना भरतिया, रूपर्ट मडोक, सुब्रत रॉय... कवर करने जाते हैं। 26/11 हादसे में क्या यही लोग जान पर खेलकर लाइव रिपोर्टिंग कर रहे थे। फिर कैसे पत्रकारिता कॉरपोरेट के हाथों में चली गई। हां, यह कहते हुए उन्हें शर्म आती है कि उनके लालच से तंग आकर पत्रकारिता की कमान उन पूंजीवादी ताक़तों को संभालना पड़ा। ऐसा ही एक वाकया पिछले दिनों पटना में हुआ। चुनाव में मीडि‍या की भूमि‍का पर एक गोष्ठीी थी। कई नामचीन और क्रांति‍कारी पत्रकारों ने इसमें शिरकत की। सबने इस बेबसी का रोना रोया कि‍ पत्रकारि‍ता कॉरपोरेट के हाथ चली गई और अब कोई पत्रकार कुछ नहीं कर सकता, पर कि‍सी ने पत्रकारों की अपनी रुचि‍ और लि‍प्सा ओं के कारण भ्रष्ट होते जाने की चर्चा तक नहीं की। समापन भषण देते हुए जब एक बड़े साहित्यकार ने यह मुद्दा उठाया, तो सभी पत्रकार अपनी बगलें झांक रहे थे। कोई भी पत्रकार इस पर कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।

और एक बात, सोमवार 22 नवंबर 2010 को देश के एक कथित प्रतिष्ठित अख़बार में पत्रकारिता के एक कथित जानी-मानी हस्ती का विज्ञापन आया, वह भी उनकी तस्वीर और चैनल के नाम के साथ। विज्ञापन में भ्रष्टाचार को सिरे से ख़त्म करने की बात कही गई थी। यानी कि पत्रकार अब चैनलों का प्रोमोशन भी करने लगे हैं। उनके चैनल तक तो बात ठीक थी, लेकिन चैनल का प्रमोशन, चैनल से उठकर अख़बारों तक आना कहां तक सही है। कल को दीवारों पर चैनलों की पोस्टर चिपकाते और पंपलेट छपवाकर बांटते कोई दिख जाए, तो हैरानी की बात नहीं होगी। प्रिंट मीडिया में तो यह प्रचलन काफ़ी पहले से चलता आ रहा है।  तो यह है हमारे  देश की आदर्श पत्रकारिता और आदर्श पत्रकारों का हाल।

सुधांशु चौहान

Tuesday, June 15, 2010

"माय नेम इज़ क्लीयर्ड?"

"माय नेम इज़ क्लीयर्ड?" यह सवाल उस राजनेता ने पूछा जो केंद्र में टेलिकॉम मिनिस्टर बनना चाहता था। सवाल पूछने वाले का नाम था डीएमके सांसद ए. राजा और जिससे यह सवाल पूछा गया उसका नाम था नीरा राडिया। यह सवाल उस रात ए.राजा ने नीरा राडिया से की, जिसके एक दिन पहले कैबिनेट की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि किस पार्टी के किस प्रतिनिधि को किस विभाग का प्रभार दिया गया है। यह बेहद गुप्त होता है। लेकिन भारत में इसकी गुप्तता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उंचे रसूख रखने वाली महिला को यह पता होता है कि फलां सांसद को फलां विभाग का प्रभार दिया गया है। यह बात ए. राजा जैसे व्यक्ति के लिए भले ही सुखदायी हो, लेकिन देश के एक आम जन के लिए बेहद दुःखदायी है। आप जानना चाहेंगे कि भला नीरा राडिया जैसी महिला को इस बात का पता कैसे लगा?  तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ए. राजा  को केवल इस बात की ही जानकारी नहीं थी कि उन्हें टेलिकॉम मिनिस्ट्री मिली है, बल्कि उन्हें यह विभाग भी नीरा राडिया की कृपा दृष्टि से ही मिल पाई है।

अब शायद नीरा राडिया की ताक़त का अंदाज़ा आपको हो चुका होगा। लेकिन नीरा राडिया और ए. राजा दोनों के लिए यह बदकिस्मती रही कि उनके टेलिफ़ोन को आयकर विभाग और सीबीआई द्वारा काफ़ी पहले से टेप किया जा रहा था। दरअसल, आयकर विभाग के अधिकारियों को यह पहले से पता था कि नीरा राडिया ने कुछ धांधली की है। राडिया को बिचौलिए की भूमिका में पाकर उसके ख़िलाफ़ 21 अक्टूबर 2009 को सीबीआई ने आईपीसी की धारा 120 बी के सेक्शन 13/2,13/1 डी के तहत डीएआई 2009 ए 0045 के तहत मामला दर्ज़ किया। साथ ही उसकी कंपनी नोएसिस कंसल्टेंसी पर आपराधिक साज़िश का मामला दर्ज़ करते हुए, उसके ख़िलाफ़ जांच शुरू की। इसी कड़ी में सीबीडीटी की विशेष सूचनाओं के आधार पर नीरा राडिया के टेलिफ़ोन जांच के घेरे में लाए गए और टेलिफ़ोन टेप करने के लिए गृह सचिव से अनुमति ली गई। यह कई लोगों के लिए बदकिस्मती रही कि यह ऑडियो टेप अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल हेडलाइंस टुडे के हाथ लग गई। नतीजा आपके सामने है। कई सफ़ेदपोशों, पत्रकारों व बिजनेसमैनों के कारनामों का खुलासा हुआ।

टेप का खुलासा
Here are excerpts from a conversation recorded on May 24, 2009 at 11.05 am.
Raja- My name is cleared?
Radia- Yeah, your case was cleared last night itself. No, what is happening with Daya?
Raja- Textiles or fertilisers?
Radia- Not for Daya though, Azhagiri or Daya only one can come in?
Raja- No, two can come...
Radia- Both?
Radia- Baalu, will be the problem, I hope.
Radia- It will be difficult for the leader to justify three family members.
Raja- (laughs) Yeah, but everybody knows...
Radia- No she said that, Kani told me last night, that is what her father told her yesterday, that for him to justify three family members would be very difficult; he recognises that problem...
Raja- Let us see what we can do...let us fight.

हालांकि यह संयोग था कि राडिया की फ़ोन टैपिंग की छह माह की अवधि के दौरान ही देश में आमचुनाव हुए और सरकार बनी। सरकार के पास यह जानकारी काफ़ी पहले से थी, लेकिन उसने राजनेताओं को बचाने के लिए जान-बूझकर कुछ नहीं किया। उल्टे उसने जांच में सहयोग कर रहे सीबीआई के एंटी करप्शन ब्रांच के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस विनित अग्रवाल का तबादला कर दिया।

नीरा राडिया का परिचय है- दुनिया की सबसे बड़ी दलाल, जिसे हर असंभव काम को संभव बनाने में महारथ हासिल है। बिल्कुल ही पेशेवराना ढंग से दलाली के हर काम को यह ख़ूबसूरत महिला बेहद ख़ूबसूरती से अंजाम देती है। टाटा, बिड़ला, मित्तल समेत दुनिया भर के कई कॉरपोरेट घरानों में अपनी ख़ास पहचान रखती है। दरअसल, नीरा राडिया चार कंपनियां- नोएसिस कंसल्टिंग, विटकॉम, न्यूकॉम कंसल्टिंग और सबसे पुरानी वैष्णवी कॉरपोरेट कंसल्टेंट प्राइवेट लिमिटेड के ज़रिए देश के कॉरपोरेट घरानों को सरकार से लाभ कमाने अर्थात उसे कैसे चूना लगाना है इसके लिए सलाह देती हैं।

राजा को क्यों चाहिए टेलिकॉम मिनिस्ट्री?
यह एक सोची समझी राजनीति के तहत हुआ कि टेलिकॉम मिनिस्ट्री का प्रभार राजा को ही दिया जाए। हालांकि पीएम मनमोहन सिंह कभी भी ए.राजा को यह डिपार्टमेंट तो क्या मिनिस्ट्री में ही जगह देने के कतई पक्ष में नहीं थे, क्योंकि मनमोहन सिंह ख़ासकर टी.आर. बालू और ए. राजा की दागदार छवि से अच्छी तरह से वाकिफ़ थे। लेकिन नीरा राडिया जैसे बिचौलिए, कॉरपोरेट घरानों का दबाव और राडिया के सहयोगी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुछ पत्रकारों (एनडीटीवी की मशहूर पत्रकार बरखा दत्त व हिंदुस्तान टाइम्स के सीनियर पत्रकार वीर सांघवी समेत कई और पत्रकार जिनके राज़ खुलने बाकी हैं...) के प्रभाव के आगे मनमोहन सिंह को झुकना पड़ा और हुआ वही, जो दलालों का समूह चाहता था। दरअसल, सारा खेल 3-जी स्पेक्ट्रम नीलामी के इर्द-गिर्द घूम रहा था, जिसे ए. राजा को अंजाम देना था। क्योंकि नीलामी की सारी प्लानिंग देश को दूरसंचार सेवा प्रदान करने वाले कॉरपोरेट घरानों ने बुन रखी थी। ए. राजा द्वारा की गई 2-जी स्पेक्ट्रम नीलामी से देश को भले ही भारी नुक़सान उठाना पड़ा, लेकिन देश के कॉरपोरेट घराने, बिचौलिए और ख़ुद ए.राजा मालामाल हो गए।

2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला
- आठ कंपनियों को बिना टेंडर बुलाए पहले आओ पहले पाओ के आधार पर औने-पौने दामों पर लाइसेंस बांट दिए गए।
- लाइसेंस बहुत ही कम क़ीमत पर 2001 के भाव के अनुसार दिए गए।
- लाइसेंस के लिए 1 अक्टूबर 2007 अंतिम तिथि थी, लेकिन 24 सितंबर, 2007 को इसे 25 दिसंबर 2007 कर दिया गया।
   
सही क्या था?
टेलिकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया (ट्राई) नें 2003 में जारी निर्देशों में ही नए लाइसेंस नीलामी प्रक्रिया के तहत जारी करने की सिफ़ारिश की थी, लेकिन ए.राजा ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने लाइसेंस को पुराने भाव पर ही बेचे, जबकि ऐसा न करके वर्तमान बाज़ार भाव और नीलामी के माध्यम से लाइसेंस बेचा जाना था।

किसके हुए वारे-न्यारे?
संचार मंत्री ए. राजा ने सभी मांगों को नज़रंदाज़ करते हुए स्वान, यूनिटेक, स्पाइस, लूप टेलिकॉम, श्याम टेलीलिंक और आइडिया सेल्यूलर को स्पेक्ट्रम आवंटित कर दिया।
- लाइसेंस से मिलने वाली राशि - 10,772 करोड़
- मिलना चाहिए था - 70,022 करोड़
- घोटाला - 60,000 करोड़

कागज़ से कमाए अरबों!
स्वान को 14 सर्कलों के लिए सरकार को 1537 करोड़ रुपये का भुगतान करना पड़ा था। जबकि उसने लाइसेंस मिलने के फ़ौरन बाद ही 45 % हिस्सेदारी संयुक्त अरब अमीरात की कंपनी एतिसलत को 90 करोड़ डॉलर यानी 4050 करोड़ रुपये में बेच दी। वहीं यूनटेक वायरलेस लिमिटेड को 22 सर्कलों के लिए सरकार को 1651 करोड़ रुपये भुगतान करना पड़ा था। जबकि उसने भी लाइसेंस मिलने के फ़ौरन बाद ही 67 % हिस्सेदारी नार्वे के टेलनॉर ग्रुप को 6120 करोड़ रुपये में बेच दी। विशेषज्ञों के मुताबिक, यदि स्वान व यूनिटेक द्वारा हिस्सेदारी बेचने की रकम ध्यान में लें, तो सारे लाइसेंसों की मिली-जुली रकम 70,022.42 करोड़ रुपये होती है। यह रकम सरकार को मिलनी थी, जो बिचौलियों और कॉरपोरेट घरानों के हिस्से में चली गई।

कारण क्या थे?
देश के इतने बड़े घोटाले के पीछे एक छोटा सा कारण था। दरअसल, ए. राजा की पत्नी ग्रीन हाउस प्रमोटर्स नाम की एक कंपनी चलाती है, जिसकी डायरेक्टर वह ख़ुद है। स्वान ग्रीन हाउस प्रमोटर्स में 1000 करोड़ रुपये का निवेश करने वाली थी, जिसके लिए राजा को यह खेल खेलना पड़ा। इसके अलावा और भी कई कारण हैं, जो फ़िलहाल अज्ञात हैं। ये कारण उचित जांच के बाद ही सामने आ पाएंगे। लेकिन उचित जांच कभी नहीं होगी। क्योंकि इतने बड़े घोटाले के उजागर होने के बाद बी ए. राजा अपनी कुर्सी पर डट कर बैठे हुए हैं और भ्रष्टाचार की भट्ठी को आंच देने में लगे हुए हैं।

सुधांशु चौहान

Tuesday, May 18, 2010

ब्राह्मणवादी विचार छोड़ लड़ना सीखिए

अपने काम के प्रति असंतोष हमेशा मेरे साथ रहा है। शायद ही कभी मुझे अपने काम से संतुष्टि मिली हो। जहां भी काम करता हूं, ख़ुद को हमेशा आंकने की कोशिश में रहता हूं कि बीते दिनों, काम के दौरान मैंने क्या सीखा? जो किया,क्या वह मेरे लिए संतोषप्रद था? कुछ नया या क्रिएटिव किया या नहीं? इतना ही नहीं, मेरे आसपास के सहकर्मी पत्रकारिता के सिद्धांतों के अनुरूप काम कर रहे हैं या नहीं, इस पर भी मेरी कड़ी निगाह रहती है। वैसी जगह मुझे काम करना बिल्कुल पसंद नहीं, जहां इनका अभाव हो। लेकिन करना पड़ता है और कर भी रहा हूं। परंतु अपने ईमान के साथ समझौता करके। काम के दौरान भन्नाता रहता हूं। पत्रकारिता के सिद्धांतों को लेकर हमेशा सहकर्मियों से अनबन हो जाती है। इसलिए हमेशा वैसे लोगों की तलाश में रहता हूं, जो पत्रकारिता को बतौर मिशन समझते हों। साथ ही उन कथित मिशनवादी पत्रकारों से मिलने के साथ-साथ उनके आस-पास ख़ुद के लिए जगह भी तलाशता रहता हूं।

काफ़ी अल्प समय में मैं वर्तमान पत्रकारिता के कई वरिष्ठ हस्ताक्षरों से मिला,जिनमें- आईबीएन-7 के प्रबंध संपादक आशुतोष, पहले आउटलुक और अब नई दुनिया के संपादक आलोक मेहता, प्रसिद्ध समकालीन कवि व पत्रकार विष्णु नागर, इंडिया मोस्ट वांडेड फ़ेम शोएब इलियासी प्रमुख हैं। लेकिन वह संतुष्टि नहीं मिली, जिसकी मुझे दरकार है। हाल ही में मेरी मुलाक़ात ज़ी न्यूज़ के संपादक व वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसूण वाजपेयी से हुई। पुण्य प्रसूण जी के व्यक्तित्व व कृतित्व का मेरे ऊपर गहरा प्रभाव रहा है, इसलिए इनसे मिलने की मेरी आकांक्षा काफ़ी पहले से थी। साथ ही उनके साथ काम करने की भी मेरी हार्दिक इच्छा रही है। हालांकि मैं नहीं समझता कि मेरी उम्र अभी उनके साथ काम करने की हुई है। क्योंकि उनके साथ जुड़ने के लिए अभी मुझे पत्रकारिता का बेहद लंबा अनुभव ग्रहण करना है। लेकिन उनसे मिलकर, मैं किसी उलझन में पड़ा जाउंगा मुझे कतई भान नहीं था। मुझे शायद यह पता नहीं था कि जिस मन के ज़ोर पर उनसे मिलूंगा, वही मन मुझे उलझन में डाल देगा।

दरअसल, पिछले दिनों मुलाक़ात के लिए मैं ज़ी न्यूज़ में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी जी के दफ़्तर गया था। हालांकि पहले दिन तो बिजी शेड्यूल के कारण उनसे मुलाक़ात नहीं हो पाई, लेकिन गार्ड ने टेलिफ़ोन से उनसे बात करवा दी। उन्होंने पूछा 'जी बोलिए क्या काम है।' मैंने कहा 'आपसे मिलना है।' उन्होंने पूछा 'किस संदर्भ में।' मैंने कहा 'आपसे व्यक्तिगत तौर पर मिलना है और किस संदर्भ में मिलना है, वह आपसे मिलने के बाद ही बताऊंगा।' इसके बाद उन्होंने अपना व्यक्तिगत मोबाइल नंबर मुझे देते हुए कहा कि आज तो मेरे पास वक़्त की कमी है, परसों सुबह बात करके आप मिलने आ जाइए। परसों जाकर मुलाक़ात हुई। वे रिसेप्शन रूम में दो महिलाओं को एक संक्षिप्त साक्षात्कार दे रहे थे। कमरे के अंदर प्रवेश कर मैंने उनके दोनों पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया। लेकिन मेरी इस क्रिया पर उनकी अजीब प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने बेहद अचरज भरी निगाहों से मेरी ओर देखा और कहा "यह क्या कर रहे हैं। यह ऑफ़िस है, कोई मंदिर थोड़े ही है। पत्रकार हो गए हैं न।"  यह कहते हुए उन्होंने मुझे अपने सामने की सीट पर बैठने के लिए कहा। बैठते हुए मैंने जवाब दिया 'जी, चार साल गुज़र चुके हैं।' तबतक दोनों महिलाएं उनसे विदा ले चुकी थीं। हाथों से अपने बगल में बैठने का इशारा करते हुए उन्होंने मुझसे पूछा, "कहां काम करते हैं।" काफ़ी संकोच और थोड़ा समय लेते हुए, मैं उनके बगल में बैठते हुए कहा पी7 न्यूज़ चैनल। फिर उन्होंने पूछा, "कहिए कैसे आना हुआ?" गहरी सांस लेकर मैं अपनी जगह से उठा और उनके सामने घुटने के बल खड़ा हो गया। इस वक़्त पता नहीं क्यों मेरी मनोदशा काफ़ी विचित्र सी हो गई थी। मेरा समूचा शरीर जैसे सूखे पत्तों की भांति अचानक कांपने लगा था। मैंने इसी अवस्था में उनसे कहा 'सर मैं पत्रकारिता में आपको अपना गुरु मानता हूं और मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप मुझे गुरुदीक्षा प्रदान करें।' अचानक ऐसा होते देखकर वे सन्न रह गए। मेरी ओर एक गहरी निगाह डालकर, उन्होंने मेरे कंधों को पकड़कर बड़े ही प्यार से उठाया। फिर मेज़ पर पड़ी मेरी डायरी को उन्होंने एक हाथ में लिया और दूसरे हाथ से मेरा एक हाथ पकड़कर मुझे साथ लिए केबिन से बाहर निकल आए। उन्होंने काफ़ी स्नेह भरे शब्दों के साथ मुझे कहा, "आपकी मनोस्थिति अभी ठीक नहीं है, आप कल मुझसे मिलें, फिर विस्तार से आपसे बात करेंगे, हां और आने के पहले मुझे फ़ोन ज़रूर कर लीजिएगा।" काफ़ी भारी मन से मैंने उनसे विदा ली।

इसके बाद तो मेरा मन एकाग्र होने का नाम ही नहीं ले रहा था। बार-बार यही ख़याल मेरे मन में आ रहा था कि उन्होंने मुझे बात करने के क़ाबिल भी नहीं समझा। यह बात मुझे पूरी रात सालती रही। उस रात मैं ठीक ढंग से सो भी नहीं पाया। सुबह जब ऑफ़िस पहुंचा, तो सबसे पहले मैंने उन्हें फ़ोन किया। मैंने सीधा उनसे कहा कि सर मैं आपके साथ काम करना चाहता हूं। इतना सुनकर वे ज़ोर से हंसे और बोले, "मैं तो आपके साथ काम करना चाहता हूं। आप ही मुझे कोई नौकरी दे दीजिए, मैं करुंगा।" फिर उन्होंने मुझे काफ़ी प्यार से समझाते हुए कहा, "देखिए यहां सबकुछ ख़ुद करना पड़ता है। किसी भी मुकाम तक पहुंचने के लिए ख़ुद मेहनत करनी पड़ती है। जहां तक आपके साथ मेरे काम करने का सवाल है, तो वह भी पूरी हो जाएगी समय के साथ। मिल जाएंगे, कहीं दोनों एक ही जगह काम करते हुए।" इसके बाद बातों का एक सिलसिला चल पड़ा जो अगले सात-आठ मिनट तक चला।

इसके कई दिनों बाद एक प्रश्न मेरे मस्तिस्क में अचानक कौंधा कि आख़िर पैर छूकर प्रणाम करने पर वे (पुण्य प्रसून वाजपेयी) मुझपर भड़के क्यों? क्या किसी का सम्मान करना पाप है? वह भी जब सामने का व्यक्ति अतियोग्य हो। उनसे मुलाक़ात के बाद मैं एक भारी उलझण में पड़ गया था। उलझण भी मैंने ख़ुद मोल ली थी, जो सैद्धांतिक थी। दरअसल, मेरे संस्कारों पर पहली बार किसी ने प्रश्न उठाया था। मैं अजीब सी उधेड़बुन में था। कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। यह तय नहीं कर पा रहा था मेरे संस्कारों में आख़िर कौन सी कमी रह गई, जिसके कारण मुझे आलोचना का शिकार होना पड़ा। काफ़ी दिनों तक मैं इस मनोदशा से पीड़ित रहा, लेकिन खु़द इसका उत्तर पाने में मैं विफल रहा। आख़िरकार मजबूर होकर मुझे उन्हें फिर से फ़ोन करना पड़ा। लेकिन उन्होंने मुझे जो उत्तर दिया उसने मेरी आंखें ही नहीं खोली, बल्कि मैं समझता हूं कि सफलता की ओर मेरा मार्ग प्रशस्त करने में यह मेरी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।  

"आप पत्रकार हैं न! आप पत्रकार हैं न जी और आपका पेट भरा हुआ है, इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं। छोड़िए इन ब्राह्मणवादी विचारों को, दूसरों के लिए लड़ना सीखिए। मैंने पलटकर जवाब दिया 'मैं समझ गया, मैं आपकी बातों को अच्छी तरह समझ गया। बहुत-बहुत धन्यवाद! धन्यवाद सर!"

सुधांशु चौहान

Wednesday, February 10, 2010

आख़िर क्यों भड़कते हैं अल्पसंख्यक

सांप्रदायिकता की जो आग मो. अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने आज़ादी के ऐन मौक़े पर लगाई, वो शायद देश के बंटवारे के बाद भी नहीं बुझी है। आज भी इसकी चिंगारी लोगों को अपने आस-पास अनायास ही दिखाई पड़ जाती है। भारत के पंथ निरपेक्ष राष्ट्र बनने के बाद भी अल्पसंख्यक ख़ासकर मुसलमानों में असुरक्षा की वही भावना मौजूद है, जो देश के बंटवारे के समय थी। आज़ादी के 60 वर्ष बीतने के बाद भी मुसलमान ख़ुद को यहां महफ़ूज़ नहीं मानते। अगर इसकी गहराई से पड़ताल करें, तो हम पाते हैं कि इसके तार कहीं न कहीं अतीत से जुड़े हैं। आज़ादी के पूर्व से ही देश में सांप्रदायिक सदभाव, तुच्छ राजनीतिक भावनाओं की भेंट चढ़ता रहा है। मो. अली जिन्ना का यह बयान 'हिंदु-मुसलमान राष्ट्र एक नहीं हो सकते', सांप्रदायिक सदभाव बिगाड़ने में मील का पत्थर साबित हुआ। इसके बाद अंग्रेजी शासन के प्रति राजभक्त संस्था मुस्लिम लीग ने देश में भयानक दंगे करवाकर रही-सही कसर पूरी कर दी।

2008 में दिल्ली में हुए सीरियल बम विस्फोट में शामिल आतंकियों के तार जब यूपी के आजमगढ़ ज़िले से पाए गए, तो इस ज़िले के सारे मुसलमानों को हिकारत की नज़रों से देखा गया। यही नहीं आजमगढ़ को 'आतंकियों की राजधानी', तो कभी 'मिनी पाकिस्तान' कहा गया। मीडिया ने तो इसे 'आतंक की नर्सरी' तक की संज्ञा तक दे डाली। इस घटना के बाद आजमगढ़ के नौजवान मुसलमानों की गिरफ़्तारी का सिलसिला ही चल निकला। अभी कुछ दिनों पहले ही बाटला हाउस एनकाउंटर के फ़रार आतंकी शहजाद पप्पू और आतीफ़ आमीन को गिरफ़्तार किया गया। दोनों ही आजमगढ़ ज़िले से ताल्लुक रखते हैं। इनपर इंडियन मुजाहिदीन का सदस्य और 2008  में दिल्ली में हुए सीरियल बम ब्लास्ट में भी शामिल होने का आरोप है। हालांकि दिल्ली पुलिस के सामने शहजाद ने इस बात को कबूल भी कर लिया है। इसके बाद तो सभी ने इसकी पूरी पुष्टि कर दी की आजमगढ़ सचमुच में ही आतंकियों का गढ़ बन चुका है और यहां के मुसलमान देशद्रोह में लिप्त हैं। यही वाकया बाटला हाउस एककाउंटर के बाद जामिया नगर और पूरे जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में दुहराया गया।

इसके पहले बिहार के भागलपुर ज़िले में इसी से जुड़ा एक सांप्रदायिक हादसा होते-होते बचा। मामला था छिनतई के मुसलमान संप्रदाय के एक आरोपी को जनता द्वारा पहले पीटा जाना, फिर पुलिस द्वारा उसे मोटरसाइकिल में बांधकर दिनदहाड़े घसीटा जाना। जहां तक जनता द्वारा किसी अपराधी को पीटे जाने का सवाल है, तो यह परिस्थितियों की उपज है। एक तरह से यह सामाजिक दंड का हिस्सा मात्र है, जिसे रोकने में पुलिस के साथ-साथ न्यायालय भी विफल है। जहां तक उसे पुलिस द्वारा घसीटे जाने की बात है, तो यह पूरी तरह से मानवाधिकार के उल्लंघन से जुड़ा मामला है। समाज के किसी भी व्यक्ति को क़ानून अपने हाथ में लेने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। इस पूरी घटना पर बावेला तब मचा, जब ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे बेहद प्रमुखता से दिखाया। दिखाया भी जाना चाहिए, क्योंकि मीडिया को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की संज्ञा से नवाज़ा गया है। लेकिन जैसा कि यहां पहले से होता आया है कि ख़बरों को बेवजह इतना सनसनीख़ेज़ बना दिया जाता है कि लोगों की संवेदनाएं अनायास ही भड़क उठती हैं। ख़ासकर जब मामला दो संप्रदाय विशेष का हो, तब तो ऐसे दृश्य पेट्रोल सरीखे काम करते हैं। खैर!  इसे तो सनसनीख़ेज़ और व्यवसायिक पत्रकारिता समझकर नज़रंदाज़ किया जा सकता है, लेकिन देश के उन राजनीतिज्ञों की भूमिका को किस कटघरे में रखा जाए, जो दंगे भड़काने में अपनी ख़ास भूमिका अदा करते हैं। यही भूमिका पिछले दिनों अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ए. आर. अंतुले ने 26/11मुंबई हमले में शहीद एटीएस चीफ़ करकरे की मौत पर राजनीतिक रोटियां सेंक कर निभाई। उस वक्त इनका साथ कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी दिया। दिग्विजय सिंह भी यही भूमिका आजमगढ़ के मामले में दोहराने की कोशिश कर रहे हैं। इसके पहले, बिहार के ही भागलपुर ज़िले में ही वहां के नेताओं ने ने दंगा भड़काने की भरपूर कोशिश की, लेकिन वहां के लोगों की सामाजिक समरसता की तारिफ़ करनी होगी, जिन्होंने समय रहते इन नेताओं की घिनौनी साज़िश को पहचान लिया। नहीं तो जैसा होता आया है, बेगुनाहों पर दंगों का कहर टूटता। ऐसे मामलों में आजमगढ़, जामियानगर और भागलपुर अकेला नहीं है। आज़ादी के बाद कई छोटे और बड़े सांप्रदायिक दंगे भड़के, जिसमें हज़ारों बेगुनाहों की जान गई। आख़िर क्या वजह है कि देश के मुसलमान दिन-प्रतिदिन संवेदनशील होते जा रहे हैं? छोटी-छोटी बातों पर भी अति आक्रामक हो जाते हैं। कोई तो वजह होगी?  वजह बिल्कुल साफ़ है-

 भारत के पंथनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित होने के बाद भी यहां के ग़ैर मुसलमान यही मानते हैं कि मुसलमान मूलतः पाकिस्तानी हैं और देश के विभाजन के समय भारत न छोड़कर उन्होंने बहुत बड़ी ग़लती की। ऐसे लोग भारत को मूलतः हिंदू राष्ट्र मानते हैं, जहां मुसलमान मोजाहिर हैं। सन् 1992 में बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर ग़ैर मुसलमान संगठनों ने यह बताने की भरसक चेष्टा की कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और मुसलमानों का यहं कोई आस्तित्व नहीं है। इसके बाद गुजरात के गोधरा में तो उग्र हिंदुत्ववादी मानसिकता ने अपने स्तर से यह सिद्ध कर दिखाया कि संविधान निर्माताओं ने भारत को पंथनिरपेक्ष राष्ट्र बनाकर बहुत बड़ी ग़लती की। ऐसा इसलिए, क्योंकि गुजरात के दंगों में सरकारी तंत्र ने भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका हिंदुओं के पक्ष में अदा की। 

इसके अलावा, आए दिन कश्मीर में सेना द्वारा आतंकवादियों के संरक्षण देने के नाम पर वहां के औरतों, मर्दों व बच्चों पर जो कहर ढाया जाता है, वह किसी से छिपा नहीं है। आज हर मुसलमान को आतंकवादी और पाकिस्तान का कट्टर समर्थक की नज़रों से देखा जाता है। उनके साथ वहशियाना हरकतें की जाती हैं। हद तो तब हो गई, जब हाल में ही सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का खुलासा हुआ। इससे राजनीतिक हलकों में मानो तूफ़ान सा आ गया। आना भी स्वाभाविक था, क्योंकि पिछले साठ सालों से मुसलमानों के हितों की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञों का पर्दाफ़ाश जो हुआ। सबसे ग़ौरतलब तथ्य तो यह है कि आज भी मुसलमानों को जाने-अंजाने अपनी राष्ट्रभक्ति का सबूत देना पड़ता है, जो बात उन्हें सबसे अधिक सालती है।
उपरोक्त तथ्य मुसलमानों के मनोमस्तिस्क में इस कदर पैठ जमा चुका है कि विभिन्न परिस्थतियों में वह आक्रामकता के रूप में बाहर आती है, जो मूलतः अवसाद से ग्रसित होती है। इसके अलावा, मुसलमानों के मन में इस बात का घर बना लेना कि सांप्रदायिक दंगों के दौरान, सबसे ज़्यादा अहित उन्हीं का हुआ है और सरकार तथा पुलिस ने उनकी सुरक्षा के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाया। गुजरात का गोधरा और मुंबई इसका सबसे जीता-जागता उदाहरण है।

हालांकि इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि कुछ ऐसे कट्टरपंथी मुसलमान हैं, जो राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं और विभिन्न मौक़ों पर इसकी पुष्टि भी होती रही है। लेकिन केवल इस आधार पर तो देश के सारे मुसलमानों को शक की निगाह से देखना कतई मुनासिब नहीं होगा।
रवींद्र नाथ टैगोर का यह कथन ' हमारी संस्कृति एक पूर्ण विकसित कमल के समान है। इनमें से यदि एक भी पंखुड़ी विकृत या ठीक से पल्लवित नहीं होती, तो सारे पुष्प की हानि होती है'  भारत के संबंध में बिल्कुल ही प्रासंगिक है।
अतः जबतक मुस्लिम समुदाय के सदस्यों को शक की निगाह से देखा जाएगा और उनपर नाहक अत्याचार किया जाएगा, तबतक दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में अमन-चैन एक दिवास्वप्न ही रहेगा।

सुधांशु चौहान

Friday, February 5, 2010

महाराष्ट्र में भारतीय!

मुंबई की गलियों का एक आवारा गुंडा दूसरा जिन्ना बनने का स्वप्न देख रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में अलोकतांत्रिकता का खुल्लम-खुल्ला खेल चल रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दिनदहाड़े गला घोंटा जा रहा है। देश, जनता व सरकार सभी इसे मौन स्वीकृति प्रदान कर रहे हैं। हद तो तब हो गई, जब राज ठाकरे नाम के इस गुंडे ने देश के गृहमंत्री पर भद्दी टिप्पनियां की, वह भी बजाप्ता प्रेस कांफ़्रेंस कर। न कोई भय न कोई लज्जा। बात यहीं ख़त्म नहीं होती। उसने सोची-समझी राजनीति के तहत एक ऐसा बयान दे डाला, जिसे देने में मो. जिन्ना को भी अर्सा लगा था। उसने साफ़ तौर पर बिना लाग लपेट के कह डाला "कल अगर महाराष्ट्र को भारत से अलग करने की की मांग उठे, तो इसका ज़िम्मेदार मैं नहीं होऊंगा।"
ज़रा देश के संविधान पर ग़ौर करें-

"भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण
प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य
के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों कोः
  सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
  विचार अभिव्यक्ति, विश्वास धर्म
                 और उपासना की स्वतंत्रता,
  प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त करने के लिए, तथा उन सब में
  व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की
  एकता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता
बढ़ाने के लिए
दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान में
आज तारीख़ 26 नवंबर 1949 ई.(मिति मार्गशीर्ष
शुक्ला सप्तमी, संवत् दो हज़ार छ विक्रमी) को
एतद्द्वारा इस संविधान को अंङ्गीकृत अधि-
नियमित और आत्मसमर्पित करते हैं।"  

यह तो पूरे संविधान का सार-संक्षेप मात्र है, जिसका पालन देश के हर व्यक्ति को को करना है। संविधान देश का सर्वोच्च क़ानून है। सारे क़ानून इसी के आधार पर तैयार किए जाते हैं। लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि एक दो टके का गुंडा देश के इस सर्वोच्च क़ानून की खुलेआम धज्जियां उड़ा रहा है और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। आख़िर क्या कारण हैं?

 विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रताः  यह देश के हर नागरिक को अपनी बातों को लोकतांत्रिक तरीक़े से रखने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। लेकिन शायद महाराष्ट्र अकेला ऐसा राज्य है, जहां यह क़ानून लागू नहीं होता। तभी तो यहां खुलेआम प्रेस पर हमले किए जाते हैं। 'व्यक्ति के लिए राष्ट्रीयता सर्वोच्च होता है। उससे बढ़कर कुछ नहीं।' लेकिन यहां ख़ुद को भारतीय कहना जैसे महापाप है। सचिन तेंदुलकर, अमिताभ बच्चन, मनोज तिवारी, शाहरुख़ ख़ान को इसकी सज़ा मिल चुकी है। इन लोगों ने ख़ुद को जब भारतीय होने का गर्व दिलाने की कोशिश की, तो इनका सिर कुचल दिया गया। ऐसे में शाहरुख़ का देश से यह पूछना कितना जायज़ और कितना नाजायज़ है कि 'मैं अपनी उस कौन सी बात को वापस कर लूं, जिससे शिवसेना और मनसे का मन शांत हो जाए। यही कि मैं भारतीय हूं।' ग़ौरतलब है कि इन सभी ने ख़ुद को भारतीय कहा था, जिसका मनसे और शिवसेना ने तगड़ा विरोध किया था। यहां तक कि उनके घर के बाहर धरना-प्रदर्शन भी किया गया। उनकी फ़िल्मों के पोस्टर फाड़ डाले गए। हालांकि इसके काफ़ी पहले से मनसे और शिवसेना हिंदी भाषा और हिंदी भाषियों का विरोध करता रहा है। यहां तक कि विधानसभा में मुंबई से समाजवादी पार्टी के एक विधायक के हिंदी में शपथ ग्रहण करने के दौरान उनपर थप्पड़ तक चलाई गई।

प्रतिष्ठा व अवसर की समताः महाराष्ट्र में शिवसेना, मनसे साथ ही कांग्रेस का कहना है कि यहां केवल मराठियों को ही रोज़ी-रोटी कमाने का अधिकार है। यह अधिकार हिंदीभाषियों पर लागू नहीं होती। तभी तो इन तीनों राजनीतिक दलों को केवल मराठियों के लिए यहां टैक्सी चलाने के लिए क़ानून तक बनाने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई।        

व्यक्ति की गरिमाः शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे, उनके बेटे उद्धव ठाकरे व मनसे प्रमुख राज ठाकरे को किसी भी व्यक्ति की गरिमा को रौंदने में चंद सेंकंड भी नहीं लगता। उत्तर भारतीयों की गरिमा को तो वे एक लंबे अर्से से रौंद ही रहे थे, लेकिन हद की इंतहां तब हो गई, जब उन्होंने देश के गृहमंत्री को लुंगी संभालने की नसीहत दे डाली। वे यहीं नहीं रुके, उन्होंने अंबानी को लुटेरा तथा राहुल गांधी को रोमपुत्र और उनके सींग निकलने की बात भी कही।

राष्ट्र की एकताः अब राष्ट्र की एकता व अखंडता का कितना ख़याल ठाकरे परिवार को है यह तो राज ठाकरे के इसी बयान से पता चल जाता है 'कल अगर महाराष्ट्र को भारत से अलग करने की की मांग परवान चढ़े, तो इसका ज़िम्मेदार मैं नहीं होऊंगा।'

युवराज का लड़कपनः कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी बिहार में अपनी उखड़ी हुई ज़मीन को दोबारा वापस करने की जद्दोजहद में बिहार के दौरे पर थे। ज़ाहिर है बिहारवासियों का दिल जीतने के लिए वे वह सब कुछ कर गुजरना चाहते थे, जिससे उनकी खोई ज़मीन उन्हें वापस मिल सके। सो उन्होंने मुंबई में बिहारियों पर हो रहे हमलों के वक्तव्यों को ही अपना हथियार बनाया। लेकिन अपने इस हथियार को धार देने में वे एक राष्ट्रवाद को भूलकर राजनीति की भाषा पर उतर आए। समय भी माकूल था, क्योंकि इस समय मुंबई में ठाकरे परिवार उत्तर भारतीयों के ख़िलाफ़ आग उगल रहे थे। सो राहुल ने कहा, ' जब मुंबई पर आतंकी हमला हुआ, तो उसे बचाने बिहार और यूपी के लोग ही आए। उस समय ठाकरे कहां थे। उस समय उन्होंने उन जवानों को वापस जाने के लिए क्यों नहीं कहा।' दरअसल, इस तरह का वक्तव्य किसी भी सभ्य व्यक्ति को शोभा नहीं देता, वह भी ख़ासकर किसी राजनेता को तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि एक सैनिक के बारे में ऐसी बात कहकर हम उसके राष्ट्रवाद पर उंगली उठा रहे हैं। भला  एक सैनिक का अपने राष्ट्र में कोई मजहब और प्रांत होता है। उनके लिए तो राष्ट्र का हर टुकड़ा हर मजहब एकसमान है। ऐसे में राहुल न सिर्फ़ उन शहीदों की शहादत पर लांछन लगाने के अभियुक्त हैं, बल्कि देश की सेना को भी बांटने के आरोप के कसूरवार हैं।

भाजपा का मौनः राज और बाल ठाकरे ने उत्तर भारतीयों के ख़िलाफ़ जितना भी ज़हर उगला उसमें भाजपा भी बराबर की हिस्सेदारी रही। इस पूरे प्रकरण में तत्कालीन और पूर्व भाजपाध्यक्ष आडवाणी का मुंह जैसे सिल गया था। उन्होंने बिल्कुल चुप्पी साध ली। देश का विपक्ष, दूसरी सबसे बड़ी पार्टी और शिवसेना का सहयोगी होने के नाते भाजपा की क्या कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती थी? हालिया प्रकरण में वर्तमान अध्यक्ष नितीन गडकरी भी इस पूरे विवाद पर टिप्पणी करने से बचे और उन्होंने अपने बदले संघ के मोहन भागवत को ढाल बना लिया। भाजपा के लिए क्या यह शोभनीय और माफ़ी के लायक हरकत है?

कांग्रेस की स्वीकृतिः मुंबई में जब भी उत्तर भारतीयों पर हमले हुए कांग्रेस ने चुप्पी साधे रखी। क्या यह राज के पक्ष में मौन स्वीकृति की ओर इशारा नहीं करती? क्या कारण थे कि राज ठाकरे के ख़िलाफ़ कोई भी कड़ा क़दम नहीं उठाया गया? जबकि उनके ख़िलाफ़ स्पष्ट रूप से राजद्रोह का मुक़दमा बनता था और बनता है।
दरअसल, कांग्रेस को राज की राजनीति से फ़ायदा हो रहा है। क्योंकि राज ठाकरे जितने मज़बूत होते जा रहे हैं, शिवसेना उतना ही कमज़ोर होता जा रहा है। महाराष्ट्र में हुए हालिया चुनाव में राज ने यह सिद्ध कर दिखाया। आंकड़ों के खेल में शिवसेना पिछड़ गई, जिसका सीधा लाभ कांग्रेस को मिला। क्योंकि राज ठाकरे शिवसेना के कैडर वोट बैंक में सेंध लगाने में पूरी तरह कामयाब रहे। साथ ही वे महाराष्ट्र में जितना ही विवादित होते जा रहे हैं, उन्हें इसका उतना ही फ़ायदा होता दिख रहा है। फलतः शिवसेना की ताकत दिन ब दिन क्षीण होती जा रही है। इस बात को कांग्रेस पूरी तरह समझकर ही राज ठाकरे को मनमानी करने की अप्रत्यक्ष छूट दे रहा है। और यही कारण है कि जब राहुल गांधी मुंबई जाने वाले थे, तो इसका विरोध मनसे ने नहीं बल्कि शिवसेना ने किया। क्योंकि मनसे और कांग्रेस के बीच, आपसी फ़ायदे को लेकर कहीं न कहीं जुड़ाव है।


बहरहाल, महाराष्ट्र की राजनीति के गंदे खेल में शिवसेना, मनसे, कांग्रेस और भाजपा सभी बराबर के हिस्सेदार हैं। सभी अपनी रोटियां सेंक रहे हैं और ख़ामियाजा उठाना पड़ रहा है बेचारे उन उत्तर भारतीयों को, जो दो जून की रोटी की तलाश में बरसों से मुंबई में हैं।

लेकिन वोट बैंक का यह राजनीतिक खेल देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए न सिर्फ़ ख़तरनाक है, बल्कि भविष्य के लिए ख़तरे की घंटी है।

सुधांशु चौहान

Thursday, January 28, 2010

अफ़जल गुरु को पद्म विभूषण !

मामला गरम है। जनता ग़ुस्से में है। सियासत के गलियारे से चली हवा से पूरा देश जैसे आक्रोश के काले बादलों से घिर गया है। हर कोई विस्मित और आक्रोशित है। लेकिन शर्मा जी इन बातों से बेख़बर अपनी धुन में मस्त हो संसद भवन के सामने से गुजर रहे हैं। उनकी नज़र में वहां के आसपास का माहौल आज शायद कुछ बदला-बदला सा दिख रहा है। रोज़ वहां मीडिया कर्मियों और उनके गन माइक के सामने अपने शासन का बखान करने वाले सत्ता पक्ष के लोगों की एक जमात होती थी, लेकिन आज सारे मीडियाकर्मी तन्हा हैं। गनमाइक तो है, लेकिन बाइट देने वाले सत्ता पक्ष के लोग दूर-दूर तक नहीं दिख रहे। कहीं-कहीं विपक्ष के लोग किसी के सामने बड़बड़ाते दिख रहे हैं। शर्मा जी आख़िर माजरा नहीं समझ पा रहे हैं। आगे बढ़ने पर कनॉट प्लेस में एक टीवी के शोरुम के सामने लोगों की भीड़ दिखाई देती है। उन्होंने सोचा शायद मैच होगा, लेकिन इधर तो कोई मैच होने वाला नहीं था। क्योंकि बांग्लादेश-भारत के बीच चल रहा टेस्ट सीरीज़ दो दिन पहले ही ख़त्म हो चुका था। फिर इतनी भीड़ किसलिए। उत्सुकता लिए शर्मा जी भी उस भीड़ में शामिल हो लिए।

लेकिन यह क्या ! सामने का दृश्य देखकर तो जैसे उनके होश फ़ाख़्ता हो गए। सामने टीवी स्क्रीन पर एक बड़े चैनल पर एक मशहूर एंकर गला फाड़-फाड़कर हैरतअंगेज़ बात बोले जा रहा था। ज़रा ग़ौर से सुनिएगा- "सरकार की बेहयाई का एक और नमूना सामने आया। संसद हमले के मास्टर माइंड अफ़जल गुरु को किया पद्म विभूषण से सम्मानित। हम आपको बताते चलें कि सरकार की यह पहली ग़लती नहीं है। इसके पहले राष्ट्रीय बालिका दिवस पर सरकार द्वारा जारी एक विज्ञापन में पाकिस्तान आर्मी के एक एक्स चीफ़ की तस्वीर छाप दी गई थी। इसके बाद बात बढ़ने पर प्रधान मंत्री की ओर से इसपर सार्वजनिक माफ़ी मांगी गई। बात यहीं ख़त्म नहीं होती। इस घटना के एक दिन पहले ही कॉमन वेल्थ गेम्स फ़ेडरेशन की आधिकारिक वेबसाइट पर जम्मू-कश्मीर और गुजरात के एक बड़े हिस्से को पाकिस्तान में दिखाया गया। बाद में इस मुद्दे पर भी माफ़ी मांगी गई।" कुल मिलाकर संपूर्ण मीडिया में हहाकार मचा हुआ था। किसी चैनल में ब्रेकिंग तो किसी में फ़्लैश। हर चैनल में सिर्फ़ यही ख़बर अपना सतरंगी रूप दिखा रही थी। इतना कुछ देखने सुनने के बाद शर्मा जी की विस्मितता अब ग़ायब हो चुकी थी। उनका मस्तिस्क अब एक वैचारिक पत्रकार की भांति काम करने लगा था। वैसे पेशे से वे भी पत्रकार ही हैं, लेकिन पत्रकारीय लक्षण कभी कभार ही दिखा पाते हैं।

खैर! फ़िलहाल वे सही दिशा में सोचते हुए घर की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। उनके दिमाग़ में अब कई बातें घूम रही है। पिछले दिनों जब सेना ने कहा कि भारत-चीन सीमा पर चीनी घुसपैठ बढ़ रही है, तो गृह मंत्रालय और सेनाध्यक्ष में ही तक़रार हो गई। बाद में सेनाध्यक्ष ने कहा कि सीमा पर सब सामान्य है। आख़िर यह कौन सी सियासत है। पहले हां, फिर ना ? एक अरब जनता के नेतृत्वकर्ता क्या ऐसी बेहूदी ग़लतियां भी कर सकते हैं! अगर ऐसा है तो क्या उन्हें सत्ता में बने रहने का अधिकार है ?  तरह-तरह के सवाल उनके दिमाग़ में आ रहे थे। घर पहुंचकर दरवाज़े पर दस्तक दी। पत्नी ने दरवाज़ा खोलकर कड़ा कटाक्ष किया 'आज देर हो गई। आज की कमाई तो लगता है लाखों में होगी। लेकिन झोला तो हल्का दिख रहा है।'  यह बात कहकर वह किचेन की तरफ़ बढ़ गई। शर्मा जी ने इस वक़्त कुछ भी बोलना मुनासिब न समझा। कंधे से झोला उतारकर टेबुल पर रखते हुए उन्होंने टीवी ऑन किया। टीवी स्क्रीन पर राष्ट्रपति मंत्रालय के कोई बड़े अधिकारी यह बयान दे रहे थे "देखिए यह बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक आतंकवादी का नाम पद्म पुरस्कारों की लिस्ट में आ जाए और इसकी घोषणा भी कर दी जाए। हालांकि इस पूरे मामले की जांच के लिए एक पांच सदस्यीय समिति का गठन कर दिया गया है। जल्द ही जांच के परिणाम सामने आ जाएंगे।" इसके बाद पीएमओ के तरफ़ से भी माफ़ीनामा बयान आ जाता है। कुल मिलाकर मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की पूरी साज़िश रच ली गई है।

लेकिन यह क्या ! शर्मा जी जैसे ही झुंझलाकर चैनल बदलते हैं कि एक दूसरे चैनल पर एक ख़बर ब्रेक हो रही है। " अफ़जल गुरु के वकील ने दाख़िल की कोर्ट में याचिका, कहा पद्म विभूषण का हक़दार है अफ़जल गुरु।" इधर कोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए कहा कि मंगलवार को इस मामले पर सुनवाई की जाएगी। पूरा देश मंगलवार के दिन को ऐतिहासिक दिवस के रूप में देखने लगा। खैर! जल्द ही वह ऐतिहासिक दिन आ गया। जेल से निकलकर सुरक्षा के भारी-भरकम लाव लश्कर के साथ अफ़जल गुरु कोर्ट पहुंचा। कार्यवाही शुरू की गई। सरकार के वकील ने बहस की शुरुआत की। काफ़ी लंबे-चौड़े भाषण से उन्होंने जज साहब को यकीन दिलाने की भरपूर कोशिश की कि दरअसल, ग़लती से अफ़जल गुरु का नाम पद्म पुरस्कारों की लिस्ट मे चला गया था। जब अफ़जल गुरु की बारी आई, तो उसने कहा "माई लॉर्ड अपने केस की पैरवी मैं ख़ुद करना पसंद करूंगा।" जज साहब ने इसकी सहज स्वीकृति दे दी। अफ़जल ने अपनी पैरवी शुरू की। " माई लॉर्ड सरकार या मेरे विरोधी यह बताएं कि मैं पद्म विभूषण के लायक क्यों नहीं। क्या मेरे आतंकवादी होने की वजह से। अगर ऐसी बात है, तब तो बराक ओबामा भी शांति के लिए नोबेल पुरस्कार के हक़दार नहीं थे। क्योंकि उनके हाथ भी अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और फ़िजी के लोगों के ख़ून से रंगे हुए हैं। वे तो दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी हैं, लेकिन उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया गया। वे तो गांधी जी के बहुत बड़े प्रशंसक हैं। माई लॉर्ड अगर आपको याद हो तो गांधी जी ने कहा था, घृणा पाप से करो पापी से नहीं।" जज के होंठों पर एक कुटिल मुस्कान तैर गई। इस दौरान अफ़जल की दलील जारी रही।

" माई लार्ड मैं आपको एक बात बताना चाहूंगा कि मेरे संगठन ने मुझे दिल्ली में ऐसी जगह ब्लास्ट करने का आदेश दिया था, जहां भीड़-भाड़ ज़्यादा से ज़्यादा हो। उन्होंने कहा था कि इस हमले में आम लोग सबसे ज़्यादा प्रभावित होने चाहिए। लेकिन मैंने मन ही मन यह तय किया कि आम लोगों पर हमला करना बहुत बड़ा पाप होगा। इसलिए मैंने जान हथेली पर रखकर हमले के लिए संसद जैसी जगह को चुना, ताकि आम लोगों को राहत मिल सके। वैसे भी माई लॉर्ड आपको तो पता ही होगा कि भारत भ्रष्टतम देशों की सूची में लगातार तरक्की कर रहा है। जिसमें संसद की भूमिका अहम है। संसद में ही लोग नोटों से भरी अटैचियों को पलट देते हैं। आम लोगों के ख़ून-पसीने का पैसा हर साल संसद में कार्यवाही के नाम पर फूंक दिया जाता है। जनता को इससे मिलता ही क्या है- महंगाई, भूखमरी, ग़रीबी, आत्मत्या न जाने और क्या-क्या। देश की माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान सरकार को संबोधित कर कहा था कि अगर आप जिस्मफ़रोशी को रोक नहीं सकते, तो क्यों न इसे क़ानूनी मान्यता दे दी जाए ? तो हुजूर मेरी आपसे यह दरख़्वास्त है कि आप आतंकवादियों के कार्यों और मजबूरियों के मद्देनज़र उनके लिए भी ऐसा बयान दें, ताकि आतंकवाद को भी क़ानूनी मान्यता मिले और वे बेख़ौफ़ होकर देश के मलवे को साफ़ करने के काम को देशहित में अंजाम दे सकें।" इसके बाद अफ़जल एकाएक चुप होकर एकटक जज साहब का मुंह ताकने लगा।

जज साहब उसकी मौन भाषा समझ चुके थे। थोड़ी देर मौन रखकर उन्होंने कहा कि अदालत की कार्यवाही कल तक के लिए मुल्तवी की जाती है। आज फ़ैसला सुनाने की घड़ी थी। सारा देश इस फ़ैसले के लिए बेचैन था। आख़िरकार वह घड़ी आ गई, जिसका सबको बेसब्री से इंतज़ार था। अदालत भीड़ से ख़चाखच भरी थी। जज साहब ने फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि तमाम जिरह और अफ़जल गुरु के दलीलों पर विचार करते हुए अदालत उनके व्यक्तित्व की सराहना करती है और सरकार से दरख़्वास्त करती है कि ऐसे व्यक्तित्व को पद्म विभूषण से सम्मानित कर इनकी मान-मर्यादा को कमतर न आंका जाए। यह अन्याय है। इसलिए अदालत सरकार से यह दरख़्वास्त करती है कि ऐसे व्यक्तित्व को पद्म विभूषण के बजाय, भारत रत्न से सम्मानित कर राष्ट्र को एक नई दिशा व दशा प्रदान करे। यह फ़ैसला सुनाते हुए जज सहब ने कलम की नींब तोड़ दी। इतना सुनकर अफ़जल गुरु के होंठो पर एक कुटिल मुस्कान दौड़ गई, जबकि सरकारी वकील ने मीडिया में यह बयान दिया कि वे इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में अपील करेंगे।      
   
सुधांशु चौहान